गृहमंत्री अमित शाह की राज्यसभा में की गई टिप्पणी भाजपा के लिए एक बड़ा राजनीतिक संकट बन गई है। उन्होंने कहा कि “एक नया फैशन चल पड़ा है, अंबेडकर-अंबेडकर-अंबेडकर। अगर इतना नाम भगवान का लिया होता तो स्वर्ग मिल जाता।” इस बयान ने विपक्षी दलों को एकजुट कर दिया है और कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल इसे मुद्दा बनाकर भाजपा पर हमला बोल रहे हैं।
डॉ. भीमराव अंबेडकर को देश के दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय भगवान जैसा मानते हैं। उन्होंने संविधान के जरिए इन समुदायों को आरक्षण, शिक्षा, नौकरी और राजनीतिक हिस्सेदारी जैसे अधिकार दिलाए। यही वजह है कि दलित और आदिवासी उन्हें अपना उद्धारक मानते हैं। डॉ. अंबेडकर ने जिन संवैधानिक प्रावधानों के जरिए दलितों और पिछड़ों को ताकत दी, वे आज उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं।
अमित शाह के बयान के बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इसे डॉ. अंबेडकर और संविधान का अपमान बताया। खरगे ने कहा कि अंबेडकर का नाम लेना कोई गुनाह नहीं है और अमित शाह को अपने बयान के लिए देश से माफी मांगनी चाहिए। विपक्ष ने बुधवार को संसद के अंदर और बाहर अमित शाह के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया।
राहुल गांधी ने अमित शाह की टिप्पणी को भाजपा की “संविधान-विरोधी” मानसिकता का सबूत बताते हुए जातिगत गणना की मांग को बल दिया। ओबीसी समुदाय, जिसकी आबादी करीब 50 % है, जातिगत गणना का सबसे बड़ा लाभार्थी होगा। वहीं, दलित और आदिवासी की जनसंख्या पहले से ही ज्ञात है। यह मुद्दा विपक्ष को भाजपा के खिलाफ लामबंद करने का एक और मौका दे रहा है।
डॉ. अंबेडकर दलितों के बीच गहरी भावनात्मक जुड़ाव रखते हैं। उनका अपमान भाजपा के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। दलित समुदाय राजनीतिक रूप से बेहद जागरूक है और यदि उन्हें लगता है कि भाजपा डॉ. अंबेडकर का अपमान कर रही है, तो यह पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।
भाजपा और आरएसएस, डॉ. अंबेडकर और उनके संविधान को लेकर हमेशा असहज रहे हैं। कांग्रेस ने राज्यसभा में यह मुद्दा उठाया कि जब संविधान बना, तो आरएसएस ने डॉ. अंबेडकर का पुतला जलाया था। खरगे ने यह भी आरोप लगाया कि भाजपा मनुस्मृति की विचारधारा का समर्थन करती है, जबकि कांग्रेस संविधान की पक्षधर है।
अमित शाह का बयान भाजपा के लिए एक बड़ा राजनीतिक नुकसान साबित हो सकता है। विपक्ष ने इसे डॉ. अंबेडकर और संविधान के अपमान के रूप में पेश किया है। दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय में यह संदेश तेजी से फैल रहा है, जिससे भाजपा को राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है। आगामी चुनावों में यह मुद्दा भाजपा के खिलाफ बड़ा हथियार बन सकता है।
पिछले 11 वर्षों से भाजपा सरकारें, जो पिछड़े वर्ग के धन को तीर्थयात्राओं के लिए मोड़ रही हैं, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों और उनके क्रांतिकारी कार्यों को व्यवस्थित रूप से नष्ट करने की कोशिश कर रही हैं। ऐसे सत्ताधारी लोगों को इसमें ‘फैशन’ दिख सकता है, लेकिन हम ‘आंबेडकर… आंबेडकर…’ कहते रहेंगे!
गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में भाषण देते हुए छह बार ‘आंबेडकर… आंबेडकर’ का नाम लिया और कहा, “यह नाम लेने का फैशन बन गया है। अगर आप भगवान का नाम इस तरह लेते, तो आपको स्वर्ग मिल जाता।” उनके इस बयान पर विवाद शुरू होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर अमित शाह का बचाव करने की कोशिश की। अमित शाह ने 12 वर्षों में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की, वह भी इस बयान का स्पष्टीकरण देने के लिए। लेकिन उन्होंने माफी मांगने के बजाय कांग्रेस पर डॉ. आंबेडकर के साथ अन्याय करने का आरोप लगाया। दूसरों की गलतियों को उजागर करने से अमित शाह के बयान की गंभीरता कम नहीं होती।
असल में, मनुवादी विचारधारा वाले अमित शाह का डॉ. आंबेडकर और उनके विचारों से कोई लेना-देना नहीं है। बाबासाहेब के प्रति दिखावटी सम्मान प्रकट करने के बावजूद, जो उनके दिल में छिपा था, वह उनके शब्दों में झलक गया। हम गर्व से अमित शाह को बताना चाहते हैं: हां, मैं और करोड़ों लोग डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों पर चलते हैं। उनके क्रांतिकारी फैसलों और उनके कार्यान्वयन से दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, और महिलाओं के जीवन में व्यापक बदलाव आए। समाज को एकजुट करने का महान कार्य डॉ. आंबेडकर ने किया। हम केवल ‘आंबेडकर… आंबेडकर…’ कहते हुए ही जीना चाहते हैं।
भारत में जाति, धर्म और वर्ण व्यवस्था से जो भेदभाव और अन्याय फैला था, उसे डॉ. आंबेडकर ने कठिन परिश्रम, गहन अध्ययन और अपने स्वास्थ्य व जीवन की परवाह किए बिना समाप्त किया।
संविधान के निर्माण और बौद्ध धर्म अपनाने का उनका निर्णय इसी प्रयास का परिणाम है। संविधान में डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक न्याय की दृष्टि दी। तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था ने बाबासाहेब की भूमिका को स्वीकार किया, जिससे समाज के शोषित वर्गों को समानता का अधिकार मिला। लेकिन पारंपरिक जाति और धर्म आधारित विचारधारा रखने वाले आज भी इसे नहीं मानते। अमित शाह के बयान से जो कड़वाहट झलकी, वह इसी मानसिकता का परिणाम है।
पुणे में हाल ही में एक शंकराचार्य ने “वैदिक संविधान यानी मनुस्मृति” का बयान दिया। मनुस्मृति में असमानता और संविधान में समानता का अंतर समझना मुश्किल नहीं है। बाबासाहेब का संविधान सभी जाति और धर्म के लोगों को एकजुट करता है। जबकि भाजपा ने पिछले 11 वर्षों में बाबासाहेब के विचारों और उनके कार्यक्रमों को व्यवस्थित रूप से खत्म करने का प्रयास किया।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद समाज में जाति और धर्म पर आधारित असमानता और विभाजन बढ़ा है। अमित शाह के अनुसार, आंबेडकर ‘फैशन’ हैं, लेकिन हमारे लिए आंबेडकर हमारी सांस हैं। संविधान में ‘सभी नागरिक समान हैं’ का सिद्धांत बाबासाहेब ने दिया। इसलिए, वह उन लोगों को खटकते हैं, जो समाज को बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं हैं।
डॉ. आंबेडकर ने 1919 में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में साउथबरो कमीशन के सामने अपनी आवाज उठाई और अपने जीवन के अंतिम क्षण तक दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। भाजपा सरकार ने सरकारी संस्थानों के निजीकरण के माध्यम से आरक्षण को अप्रासंगिक करने का काम किया।
अमित शाह जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनका शोषित समाज के मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने हर स्थिति में संविधान के दायरे में रहकर समानता और न्याय की लड़ाई लड़ी।
बाबासाहेब ने ‘बुद्धा एंड हिज धम्म’ नामक पुस्तक लिखी और बौद्ध धर्म के तीन मूल सिद्धांतों – प्रज्ञा, करुणा और समता – का प्रचार किया। उनका मानना था कि बुद्धिनिष्ठ रहकर, दूसरों से प्रेम और समान व्यवहार करके दुनिया स्वर्ग बन सकती है।
डॉ. आंबेडकर के विचारों से सच्चे स्वर्ग की परिकल्पना की जा सकती है। लेकिन अमित शाह जैसे लोग इसे समझ नहीं सकते।