विश्वविख्यात व्यंगचित्रकार ‘मनोहर’, चंद्रपुर के हीरो भी और हीरा भी !

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संपादकीय

प्रसिद्ध व्यंगचित्रकार, शिल्पकार और लेखक मनोहर सप्रे का 91 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने चंद्रपुर स्थित अपने घर पर 2 दिन पूर्व ही अंतिम सांस ली। मनोहर सप्रे ने व्यंगचित्र और शिल्पकला के क्षेत्र में अनमोल योगदान दिया। उनकी कला को कई बड़े नेताओं और मशहूर हस्तियों का समर्थन मिला, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे और ख्यातनाम व्यंगचित्रकार आर.के. लक्ष्मण शामिल हैं।

मनोहर सप्रे के निधन की खबर ने गहरा दुःख पहुंचाया। सप्रे एक बहुआयामी और बहुप्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे। उन्होंने सरकारी नौकरी से लेकर प्राध्यापक, मजदूर आंदोलनों के नेता, व्यंग्यचित्रकार, शिल्पकार और लेखक जैसे कई क्षेत्रों में पूरी तन्मयता से काम किया। उन्होंने अखबारों के लिए लिखे लेखों का एक संग्रह तैयार किया था, जिसका शीर्षक ‘मन मौजी’ रखा गया, जो पूरी तरह उपयुक्त था। उनका अध्ययन बहुत विस्तृत और गहन था।

उनका मानना था, “पाठक साहित्य सृजन में एक भागीदार होता है। कवि या लेखक कुछ भी लिखता है, लेकिन उसके लेखन को हर पाठक के द्वारा नए-नए अर्थ मिलते रहते हैं। यह साहित्य का विस्तार होता है।” यह विचार उन्हें बेहद प्रिय था।

प्रसिद्ध शि. द. फडणीस, वसंत सरवटे और बाल ठाकरे जैसे कलाकारों ने मराठी पाठकों में व्यंग्यचित्रकला के प्रति रुचि पैदा की, और इसी पीढ़ी के प्रमुख व्यंग्यचित्रकारों में मनोहर सप्रे का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। लगभग 20 वर्षों तक उनके सामाजिक व्यंग्यचित्र प्रकाशित होते रहे। चंद्रपुर जैसे उस समय के दूरदराज इलाके में रहने वाले सप्रे अपनी बनाई तस्वीरें एक परिचित रेलगाड़ी गार्ड के जरिए मुंबई भेजते थे। अगले दिन वह गार्ड उन चित्रों को मीडिया कार्यालय में पहुंचा देता था, और तीसरे या चौथे दिन वे चित्र प्रकाशित हो जाते थे।

राजनीतिक विषय तत्कालीन होते हैं, इसलिए उन पर तुरंत व्यंग्यचित्र बनाकर प्रकाशित करना जरूरी होता है, जो चंद्रपुर से संभव नहीं था। इसी कारण सप्रे ने सामाजिक मुद्दों पर ही व्यंग्यचित्र बनाना शुरू किया। उस दौर में उनकी रचनाएं कई मासिक पत्रिकाओं और दिवाली विशेषांकों में भी छपती थीं।

उनके व्यंगचित्रों के संग्रह “व्यंगार्थी” और “हसा की!” बेहद लोकप्रिय हुए। इसके साथ ही उनकी काष्ठ-शिल्पकला के बारे में “फ्रॉम बीइंग टू बिकमिंग” नामक कॉफी टेबल बुक एक संग्रहणीय दस्तावेज है। उनकी उत्कृष्ट कलाकृतियों का स्थायी प्रदर्शन पेंच नेशनल पार्क के एक रिसॉर्ट में स्थापित किया गया है।

सप्रे का जीवन संघर्ष और रचनात्मकता का संगम था। परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की और उसके बाद सरकारी नौकरी शुरू की। हालांकि, उनका झुकाव कला की ओर था, जिसे उन्होंने औपचारिक शिक्षा लिए बिना ही निखारा।

अपने जीवन के शुरुआती दौर में उन्होंने “मार्मिक” मैगजीन के लिए व्यंगचित्र बनाए। वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे और श्रमिक आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। यहां तक कि उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा। अपने स्वतंत्र विचारों के कारण, प्राध्यापक के रूप में भी वे अलग पहचान बनाए हुए थे।

सप्रे ने न केवल खुद को एक उत्कृष्ट कलाकार के रूप में स्थापित किया, बल्कि चंद्रपुर के आदिवासी युवाओं को कला का प्रशिक्षण देकर उनके लिए रोजगार के अवसर भी बनाए। उनकी कलाकृतियां फ्रांस जैसे देशों के प्रदर्शनियों में प्रदर्शित हुईं।

मनोहर सप्रे का मानना था कि व्यंगचित्र विसंगतियों को उजागर करने का सबसे प्रभावी माध्यम है। वे लिखते हैं, “व्यंगचित्र समाज के सभी स्तरों की विसंगतियों को सामने लाने का एक तरीका है। यह उन्हें खत्म तो नहीं कर सकता, लेकिन उन्हें महसूस कराने की शक्ति जरूर रखता है।”

उनकी दृष्टि में व्यंगचित्र और कविता, दोनों कलाओं में एक गहरी समानता है। उनका कहना था कि, “अन्य कलाएं विस्तार में आकार लेती हैं, लेकिन व्यंगचित्र और कविता संक्षिप्तता में निखरती हैं। यही उनकी प्रखरता का कारण है।”

मनोहर सप्रे ने अपने व्यंगचित्रों और लेखन के माध्यम से एक महत्वपूर्ण संदेश दिया: “हमारे अनुभव अलग हो सकते हैं, लेकिन उन अनुभवों के पीछे समान सूत्र तलाशकर, हम अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं।”

उनकी कला, विचार और जीवन संघर्ष हमें प्रेरणा देते हैं कि सीमित संसाधनों में भी बड़े सपने देखे जा सकते हैं और अपने प्रयासों से समाज पर गहरा प्रभाव डाला जा सकता है।