5 माह में कांग्रेस की दुर्गति, जिम्मेदार कौन ? धानोरकर, धोटे व वडेट्‌टीवार करें चिंतन

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बीते लोकसभा का चुनाव 19 अप्रैल को संपन्न हुआ और 4 जून को परिणाम घोषित हुए। इस चुनाव में चंद्रपुर की लोकसभा के कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा धानोरकर को 57.85 प्रतिशत अर्थात 7 लाख 18 हजार 410 वोट तथा भाजपा प्रत्याशी सुधीर मुनगंटीवार को 4 लाख 58 हजार 4 वोट मिले। मतलब साफ है कि कांग्रेस ने यहां 2 लाख 60 हजार 406 वोटों की लीड हासिल की थी। महज 5 माह ही बीत पाएं और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। जिले के 6 में से 5 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस बुरी तरह से हार गई। गत 5 माह में ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस के अनुकूल जनता ने कांग्रेस को सीरे से नकार दिया ? यहां तक की कांग्रेस के जिलाध्यक्ष सुभाष धोटे भी अपनी सीट बचाने में नाकाम रहे। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की फौज में लोकसभा चुनावों के समय जो असिम उत्साह नजर आता था, वह अचानक से नदारद कैसे हो गया ? क्या कांग्रेस के शिर्ष नेताओं से ऐसी कोई गलतियां हुई हैं जो कांग्रेस को आत्मचिंतन करने के लिए मजबूर कर रही है ? क्या कांग्रेस के भितर की गुटबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और द्वेष की राजनीति ने आम कार्यकर्ताओं के दिलों में नाराजगी भर दी ? क्या हकदार उम्मीदवारों को दरकिनार कर अपने चेहतों को टिकट बांटे जाने के कारण आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मुड बदल गया और वे जनता के बीच पहुंचकर कांग्रेस के जाहिरनामें से जनता को आकृष्ठ नहीं कर पाएं ? इन तमाम सवालों पर सांसद प्रतिभा धानोरकर, विधायक विजय वडेट्‌टीवार एवं पूर्व विधायक सुभाष धोटे को गहन आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो आगामी तमाम चुनावों में कांग्रेस इससे ज्यादा बुरी तरह से हार सकती है।

वर्तमान में चंद्रपुर जिले के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में काफी निराशा छाई हुई है। इस निराशाजनक स्थिति को दूर करने के लिए न तो धानोरकर की ओर से कोई सशक्त प्रयास किया जा रहा है और न ही वडेट्‌टीवार कोई ठोस रणनीति बना रहे हैं। कांग्रेस जिलाध्यक्ष सुभाष धोटे जो स्वयं ही चुनाव हार गये हैं, उन्होंने संगठन की मजबूती के लिए क्या किया, यह सवाल अब चर्चा के केंद्र में आ गया है। यदि चुनावी हार के बाद भी यही आलम रहा और आम कार्यकर्ताओं पर निराशा हावी रही तो आगामी चुनावों में कांग्रेस घूटने टेक देगी और इससे अधिक बुरे नतीजे कांग्रेस को भोगने होंगे। यकीनन भाजपा ने लाड़ली बहन योजना जैसी अनेक योजनाओं के माध्यम से जनता का दिल जीतने का प्रयास किया है। लेकिन यह कोई इकलौता कारण नहीं है, जिससे भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई है। कांग्रेस का अपना घर कमजोर था, या कमजोर बनाया गया अथवा कमजोर बनने के लिए मजबूर किया गया, तभी तो भाजपा की आंधी में कांग्रेस ताश के पत्तों की तरह ढह गई।

किसी भी हार के बाद पुन: उठ खड़े होना और अपनी गलतियों पर चिंतन-मनन कर, अपनी रणनीतियों में सुधार करना मंजे हुए राजनीतिज्ञों का काम होता है। परंतु चंद्रपुर जिले के कांग्रेस में गत माह पूर्व लोकसभा में मिली रेकॉर्ड तोड़ जीत और अब मिली रेकॉर्ड तोड़ हार के बीच का फर्क जानने के लिए कोई ठोस कदम न उठाया जाना, यहां के कांग्रेस के शिर्ष नेताओं की कमजोरी को दर्शा रहा है। यदि समय रहते कांग्रेस के भितर के बिगड़ी हुई चीजों को ठीक नहीं किया गया तो आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में इसका बुरा असर पड़ेगा। यदि लोकल बॉडी के चुनाव कांग्रेस हार जाती है तो फिर अागामी लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को ताकत देने वाला कोई नहीं मिलेगा।

किसी भी चुनाव को जीतने के लिए उसका संगठन अहम रोल अदा करता है। संगठन यदि मजबूत हो तो चुनाव में उसके सकारात्मक असर दिखाई पड़ते हैं। संगठन तब मजबूत होता है जब आम कार्यकर्ताओं को तवज्जों दी जाती है। किराये पर लाई गई भीड़ और राजनीतिक सभाओं में स्टार प्रचारकों के जोरदार भाषणों से कभी वोटों का प्रतिशत नहीं बढ़ता। इसलिए कांग्रेस के संगठन को अधिक मजबूत करने की आवश्यकता को नजरअंदाज करना यहां के शिर्ष नेताओं की पहली जिम्मेदारी है। अगर चुनावी हार पर मंथन नहीं किया गया और कांग्रेस के संगठन को मजबूत करने पर जोर नहीं दिया गया तो आज जो थोड़ीे बहुत सत्ता का सुख भोग रहे हैं, वह आने वाले दिनों में हाथों से छिन जाएगा। और सबकुछ गंवाने के बाद कांग्रेस नेता हाथ मलते रह जाएंगे।

चंद्रपुर जिले के कांग्रेस के शिर्ष नेताओं को आवश्यकता है कि वे सबसे पहले अपने आपसी मनमुटाव को खत्म करें। एक-दूसरे के खिलाफ समय-समय पर की जाने वाली द्वेषपूर्ण बयानबाजी का दूरगामी असर आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर पड़ रहा है। इस गुट में जाएं या उस खेमे में रहे, यही सोचने में कार्यकर्ता अपना पूरा समय गंवा रहे हैं। एक गुट, दूसरे गुट से इतना बैर रखता है कि इसकी गतिविधियां जनता के बीच चर्चा का विषय बन जाती है और जनता फिर वोट देते समय इनके आपसी झगड़ों को देखकर निराशा में दूसरी ओर मुड़ जाती है। शिर्ष नेताओं की ओर से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की रणनीति से भले ही इन नेताओं का कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन गुटबाजी में फंसे कार्यकर्ता निष्क्रिय होकर पड़े रहते हैं। वे तमाशा देखने लगते हैं। फिर इस तमाशे से बचने के लिए संगठन से दूरी अपना लेते है। जो कार्यकर्ता सभी शिर्ष नेताओं से और कांग्रेस से नीतिगत एवं अच्छे संबंध रखना चाहता है, उसके लिए बेहद कठिन हालात पैदा कर दिये जाते हैं। इधर जाएं तो उधर के नाराज, उधर जाएं तो इधर के नाखुश, इस झंझट से बचने के लिए कुछ कार्यकर्ता तो कांग्रेस का दामन ही छोड़ देते हैं।

जातिगत राजनीति, करीबियों को तवज्जों, आम कार्यकर्ताओं को सम्मान नहीं मिलना, उलजुलूल बयानबाजी, कार्यकर्ताओं के काम न होना, विकास कार्यों में होने वाली देरी, जरूरी और समय रहते मुद्दों पर भूमिका नहीं लेना, आवश्यक विषय पर आंदोलनों में शरीक न होना, कार्यकर्ताओं को समय न देना, चंद कार्यकर्ताओं को ही करीबी बनाकर रखना, जनता का मुड़ जानने के लिए सभी स्तर के लोगों से संपर्क न बढ़ा पाना ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिन पर जिले के कांग्रेस के शिर्ष नेताओं को आत्मचिंतन करना होगा।

चंद्रपुर

निर्दलीय रहे विधायक किशोर जोरगेवार ने पिछले चुनाव में 72 हजार से अधिक वोटों से जीत हासिल की थी। इस बार उनकी बढ़त कम हुई, लेकिन 22,804 वोटों से मिली जीत ने कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया। जोरगेवार को इस बार 1,06,841 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के प्रवीण पडवेकर ने 84,037 वोट हासिल किए। भाजपा के बागी ब्रिजभूषण पाझारे को 14,598 और कांग्रेस के बागी राजू झोडे को केवल 5,711 वोट मिले।

जोरगेवार पर भाजपा से विरोध के बावजूद कांग्रेस की गुटबाजी भारी नहीं पड़ी, क्योंकि कई कांग्रेसी अंदर ही अंदर उनके लिए काम कर रहे थे। कांग्रेस में पडवेकर को लेकर एकजुटता की कमी रही, जिससे पार्टी की जीत की उम्मीदें धराशायी हो गईं।

बल्लारपुर

भाजपा नेता और वरिष्ठ मंत्री सुधीर मुनगंटीवार को कांग्रेस ने इस बार भी कड़ी चुनौती नहीं दी। पिछली बार की तरह इस बार भी वोट बंटने से मुनगंटीवार आसानी से जीत गए। कांग्रेस ने संतोषसिंह रावत को टिकट दिया, जबकि डॉ. अभिलाषा गावतूरे को नजरअंदाज कर दिया।

मुनगंटीवार ने 1,05,969 वोटों के साथ 25,985 की बढ़त से जीत दर्ज की। कांग्रेस के संतोष रावत को 79,984 और अभिलाषा गावतूरे को 20,935 वोट मिले। वंचित पार्टी के सतीश मालेकर ने भी 5,075 वोट हासिल किए।

ब्रम्हपुरी

कांग्रेस नेता विजय वडेट्टीवार को इस बार जीत के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। भाजपा के कृष्णलाल सहारे ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। वडेट्टीवार ने 1,14,196 वोटों से जीत दर्ज की, जबकि सहारे को 1,00,225 वोट मिले। उनकी जीत का अंतर केवल 13,971 वोट था, जो पिछले चुनाव की तुलना में काफी कम है। यह उनकी घटती लोकप्रियता का संकेत हो सकता है।

राजुरा

भाजपा नेता देवराव भोंगले ने कांग्रेस के वर्तमान विधायक सुभाष धोटे और तीन पूर्व विधायकों की रणनीति को मात देकर 72,882 वोटों से जीत हासिल की। कांग्रेस के धोटे को 69,828 और एडवोकेट वामनराव चटप को 55,090 वोट मिले।

कांग्रेस की गुटबाजी, फर्जी वोटर मुद्दे पर ठोस कार्रवाई की कमी, और भाजपा में अंदरूनी विवाद को सुलझाने में सफलता ने भोंगले की जीत को सुनिश्चित किया।

वरोरा

29 वर्षीय भाजपा प्रत्याशी करण देवतले ने पहली बार चुनाव लड़ते हुए 65,170 वोटों के साथ 15,450 की बढ़त से जीत दर्ज की। कांग्रेस के प्रवीण काकडे केवल 25,048 वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। परिवारवाद और कांग्रेस में गुटबाजी के चलते पार्टी की हार हुई।

चिमूर

भाजपा के बंटी भांगडिया ने कांग्रेस के सतीश वारजुकर को 9,853 वोटों की बढ़त से हराया। भांगडिया ने इस बार 101 वोट ज्यादा हासिल किए। कांग्रेस की दोगली नीतियों, जैसे ब्रम्हपुरी और चिमूर दोनों को जिला बनाने के वादों, से जनता नाराज हुई। यह हार न केवल वारजुकर की, बल्कि कांग्रेस नेता विजय वडेट्टीवार की भी मानी जा रही है, जो चिमूर के पूर्व विधायक रह चुके हैं।