संपादकीय
महाराष्ट्र ने वह दौर भी देखा है जब कोई नेता किसी शहर में जाहिर सभा के लिए आता था तो हजारों – लाखों की संख्या में भीड़, गांव-गांव से निकलकर सभा मंडप तक पहुंच जाया करती थी। आज के दौर में बसें, ट्रक, कारें आदि वाहन नेताओं द्वारा गांवों में भेजने के बावजूद लोग और स्वयं कार्यकर्ता भी राजनीतिक दलों की सभाओं में आने के लिए इच्छुक नजर नहीं आते। ऐसे में प्रलोभनों और मानधन की चाशनी घोलना पड़ रहा है। यह नौबत तमाम राजनीतिक दलों पर क्यों आ गई है ? क्यों विविध पार्टियों में अब सच्चे, निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी खलने लगी है ?
अपना सब कुछ त्याग कर काम करने की कार्यकर्ताओं की लगन अब धीरे-धीरे कम हो रही है। अब वे भी व्यावहारिक होने लगे हैं। अगर चुनाव जीतना है, तो केवल पैसा होना ही काफी नहीं है, बल्कि कार्यकर्ता भी महत्वपूर्ण होते हैं। पहले जब चुनाव नजदीक आते थे, तो कार्यकर्ता काम में लग जाते थे। उनका मुख्य काम घर-घर जाकर मतदाताओं से संपर्क साधना और जानकारी इकट्ठा करना या पुरानी जानकारी को अपडेट करना होता था। इसके लिए, प्रत्येक हज़ार मतदाताओं के लिए एक कार्यकर्ता नियुक्त किया जाता था। यह कार्यकर्ता जनप्रतिनिधियों की रीढ़ हुआ करता था। चुनाव आसान होगा या कठिन, इसका अंदाजा कार्यकर्ता की रिपोर्ट पर निर्भर करता था। अब पूरी तस्वीर बदल गई है। ईमानदारी और निःस्वार्थ भावना से पार्टी के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी है।
अंतिम मतदाता सूची तैयार होने के बाद, राजनीतिक पार्टियां उसे ध्यान से अध्ययन करती हैं। उस आधार पर क्षेत्र और उप-क्षेत्र बनाकर प्रत्येक मतदाताओं का एक समूह तैयार किया जाता है। उस प्रत्येक समूह के लिए एक कार्यकर्ता नियुक्त किया जाता है। इन कार्यकर्ताओं से संबंधित मतदाताओं की विस्तृत जानकारी एकत्र की जाती है। जैसे कि क्या वे वहीं रहते हैं, क्या कोई मतदाता दिवंगत हो गया है, विदेश में है या नहीं। कार्यकर्ता मतदाताओं के राजनीतिक झुकाव का भी अनुमान लगाते हैं और इसे पार्टी या उम्मीदवार को देते हैं। इस जानकारी से पार्टी या उम्मीदवार के संभावित वोटों का हिसाब-किताब तय होता है। कार्यकर्ता उम्मीदवार की सफलता-असफलता में एक प्रमुख भूमिका निभाता है क्योंकि उसकी जानकारी के आधार पर उम्मीदवार रणनीति तैयार करते हैं। वर्तमान में केवल कुछ ही पार्टियां इस व्यवस्था का उपयोग कर रही हैं।
अब एक पार्टी से दूसरी पार्टी में नेताओं का आना-जाना बढ़ गया है। इससे कार्यकर्ताओं पर कोई खास असर नहीं होता, और मतदाताओं के लिए भी इसका कोई महत्व नहीं रहता क्योंकि उन्हें तो पहले से तय मान लिया जाता है। मतदाताओं की संख्या बढ़ने के कारण अब कार्यकर्ता भी कम पड़ने लगे हैं। साथ ही, ‘जैसा नेता, वैसा कार्यकर्ता’ के सिद्धांत पर चलते हुए कार्यकर्ता भी नेताओं की तरह व्यवहारिक हो गए हैं। अपने सब कुछ त्याग कर काम करने की भावना अब उनमें कम हो गई है और वे भी अधिक व्यावहारिक हो गए हैं।
लाखों में बढ़ते इन मतदाताओं तक पहुँचने का कठिन काम कार्यकर्ताओं के सामने है। इन लाखों मतदाताओं तक कार्यकर्ता कैसे पहुँचेंगे? साथ ही, राजनीतिक पार्टियों की उपेक्षा के चलते मौजूदा स्थिति में कार्यकर्ता प्रणाली समाप्त होती सी दिख रही है।
महाराष्ट्र में एक और स्थिति है, जिसे गहराई से समझने की आवश्यकता है। पहले कभी इतनी गहरी और चौड़ी सामाजिक, सांस्कृतिक, और निश्चित ही राजनीतिक विभाजन की स्थिति का अनुभव नहीं किया होगा। ऐसा कहा जा रहा था कि सत्ता में बैठे लोगों को विभिन्न जनकल्याण योजनाओं की घोषणा के लिए पर्याप्त समय मिलेगा, विभिन्न घोषणाओं का समय पर प्रदर्शन हो सकेगा, प्रधानमंत्री और अन्य माननीयों के दौरे ठीक से आयोजित हो सकेंगे और तब महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों की घोषणा होगी। चुनाव आयोग ने अपनी कार्रवाई से इस अनुमान को सही साबित किया। आखिरकार चुनाव की घोषणा हो गई। अब अन्य कोई नहीं तो कम से कम जिनके पास राज्य सरकार की तिजोरी की ज़िम्मेदारी है, उन्होंने राहत की सांस ली होगी। पिछले कुछ दिनों से संबंधित विभागों के कर्मचारियों को दिन-रात काम करना पड़ा होगा। राज्य का नेतृत्व कई नई योजनाओं के वितरण में व्यस्त था, इसलिए अधिकारी लगातार तिजोरी की स्थिति का हिसाब-किताब लगाने में जुटे थे। पिछले कुछ हफ्तों में, सरकार का प्रत्येक सदस्य जैसे द्रौपदी की थाली का मालिक बना हुआ था, जिसे जो चाहिए था वह उसे मिलता रहा। यह चुनाव की शक्ति है। आम जनता शायद ‘एक देश एक चुनाव’ के सिद्धांत का विरोध इसलिए करती है, क्योंकि बार-बार चुनाव का अर्थ है बार-बार लाभ।
चुनावों के बार-बार होने का मतलब बार-बार प्रधानमंत्री और अन्य माननीयों का दौरा, जिसका अर्थ बार-बार सड़कों की मरम्मत, साफ-सफाई, और स्वच्छ भारत का अनुभव। जनता का असली हित ‘एक देश कई चुनाव’ में ही है, इसमें संदेह नहीं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चाहे वह गठबंधन हो या महाविकास आघाड़ी, दोनों के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा तय करना कठिन हो गया है। सत्ताधारी गठबंधन में यह परेशानी अधिक है। हालांकि उनके पास पहले से मुख्यमंत्री हैं, और कई लोकप्रिय योजनाएं मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पेश की जा रही हैं। लेकिन फिर भी, न तो खुद उनकी शिवसेना और न ही उन्हें मुख्यमंत्री बनाने वाला बीजेपी यह कहने को तैयार है कि चुनाव के बाद एकनाथ शिंदे ही मुख्यमंत्री होंगे।
महाविकास आघाड़ी में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। वहां भी दो-दो पूर्व मुख्यमंत्री हैं – उद्धव ठाकरे और पृथ्वीराज चव्हाण। इसके अलावा, बालासाहेब थोरात और नाना पटोले जैसे नेता भी हैं, जिनकी मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा है। हालांकि, इनमें से कोई भी भविष्य का मुख्यमंत्री बनने का दावा नहीं कर रहा है।
गठबंधन या महाविकास आघाड़ी में कोई भी अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की संख्या और सही चुनाव क्षेत्रों के बारे में स्पष्टता नहीं दे सकता। ऐसी स्थिति अनोखी है, क्योंकि चुनावों के ऐलान के बाद भी किसी को पता नहीं है कि किसे कहां से चुनाव लड़ना है। इस बार दोनों पक्षों में तीन-तीन पार्टियां हैं। ऐसी स्थिति में, बागियों की संख्या भी काफी होगी और उनका असंतोष कम होता नहीं दिख रहा है।
अब इस स्थिति के साथ, चुनावों के बाद का माहौल कैसा होगा, इसकी कल्पना भी मुश्किल है। पिछले पांच सालों में महाराष्ट्र ने जैसी राजनीति देखी, शायद ही किसी अन्य राज्य ने ऐसी सियासी हलचल देखी हो। राज्य के समक्ष मौजूद वास्तविक आर्थिक चुनौतियां, बेरोजगारी, शिक्षा का गिरता स्तर आदि मुद्दे इस चुनाव में किसी के एजेंडे पर नहीं हैं।