चुनाव तो आते-जाते रहेंगे लेकिन किसानों पर न हो अन्याय

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चुनावों के बीतने तक किसानों को खुश करने की राजनीतिक दलों की नीति अब बदलनी होगी। सरकार की आयात-निर्यात नीति में अस्थिरता के कारण प्याज, सोयाबीन, कपास और दालों की खेती करने वाले किसान नाराज हैं। चुनावों को ध्यान में रखते हुए ग्राहक-केंद्रित कृषि नीतियां अपनाने से किसानों को नुकसान हो रहा है। आयात-निर्यात नीति में बार-बार बदलाव के चलते प्याज, सोयाबीन, कपास और दालों के उत्पादक किसान परेशान हैं। उनकी नाराजगी दूर करने के लिए मुफ्त योजनाओं और सब्सिडी की घोषणाएं की जा रही हैं, जो स्वस्थ कृषि व्यवस्था का संकेत नहीं हैं।

जैसे त्योहारों के दौरान कुछ खास उत्पादों की मांग बढ़ती है, वैसे ही महंगाई कम करने के लिए सरकार त्योहारों के समय विशेष कदम उठाती है। लेकिन इस साल सरकार ने महंगाई बढ़ाने वाले फैसले किए हैं। पिछले दशक में महंगाई पर नियंत्रण के लिए आयात-निर्यात नीति अपनाने वाली केंद्र सरकार अब अचानक किसानों के प्रति संवेदनशील हो गई है। इसका कारण यह है कि मौजूदा सरकार को किसानों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। किसान अब भावनात्मक मुद्दों पर नहीं, बल्कि फसलों के गिरते दामों पर सवाल उठा रहे हैं। इसका खामियाजा भारतीय जनता पार्टी को पिछली लोकसभा चुनावों में उठाना पड़ा था।

विधानसभा चुनाव से पहले किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए सरकार ने प्रयास तेज कर दिए हैं। प्याज की कीमतों में तेजी के बावजूद निर्यात पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया और सितंबर में निर्यात शुल्क 40% से घटाकर 20% कर दिया गया। खाद्य तेल के आयात शुल्क में 20% की वृद्धि की गई और चावल का निर्यात खोला गया। इससे महंगाई अस्थायी रूप से बढ़ने की संभावना है, लेकिन चुनाव जीतने के लिए केंद्र सरकार यह जोखिम उठाने को तैयार है। लोकसभा चुनाव में ग्रामीण महाराष्ट्र में महायुती को मिली हार की पुनरावृत्ति रोकने के लिए ये कदम उठाए गए हैं।

हालांकि, इन कदमों से किसानों के बीच तुरंत सरकार के प्रति विश्वास बनता नहीं दिखता। जब प्याज की कटाई के बाद भारी मात्रा में बाजार में आया था, तब निर्यात पर प्रतिबंध था। बाजार में दाम 10 रुपये प्रति किलो के आसपास थे, लेकिन सरकार ने न्यूनतम निर्यात मूल्य अधिक रखा। निर्यात शुल्क 40% लगाकर इसे हतोत्साहित किया गया। अप्रैल से अगस्त के बीच निर्यात पिछले साल की तुलना में 70% कम हुआ।

विधानसभा चुनाव में प्याज उत्पादक किसानों की नाराजगी से बचने के लिए निर्यात शुल्क घटाकर आधा कर दिया गया। हालांकि, इसका लाभ किसानों से ज्यादा व्यापारियों को हुआ। किसानों ने खराब होने के डर से सितंबर से पहले ही प्याज बेच दिया था। अब व्यापारी इसका निर्यात कर रहे हैं। इसके साथ ही चुनाव के बाद फिर से निर्यात पर प्रतिबंध लगने की आशंका बनी हुई है।

अक्टूबर में खुदरा महंगाई दर 14 महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुंचने से वित्तीय बाजारों में उथल-पुथल मची है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के लिए ब्याज दरों में कटौती करना मुश्किल हो गया है। पिछले दस वर्षों के फैसलों को देखें तो मोदी सरकार ने फिलहाल विधानसभा चुनाव के लिए ही राहत दी है। चुनाव के बाद फिर से कठोर फैसलों की आशंका है, जिससे किसानों की यह नाराजगी जायज है।

केंद्र सरकार ने पिछले दशक में खाद्य महंगाई को अत्यधिक महत्व दिया लेकिन किसानों की आय बढ़ाने के लिए कोई ठोस नीति नहीं अपनाई। इस साल सोयाबीन और कपास का उत्पादन कम होने के बावजूद दाम गिरे हैं। आमतौर पर उत्पादन घटने पर कीमतें बढ़ती हैं, लेकिन इस बार किसान दोहरी मार झेल रहे हैं।

पिछले दो दशकों में राज्य में सोयाबीन की खेती बढ़ी है, लेकिन इस फसल के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई। नतीजतन, किसानों को सोयाबीन दस साल पहले की तुलना में कम कीमत पर बेचना पड़ रहा है। सोयाबीन में 18% तेल और 82% पेंड होता है। देश में खाद्य तेल की कमी है, लेकिन पेंड का अतिरिक्त स्टॉक सस्ते दामों पर निर्यात करना पड़ रहा है।

सरकार ने खाद्य तेल पर आयात शुल्क 20% बढ़ाकर करीब 35,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व जुटाया है। हालांकि, सोयाबीन के पेंड का सवाल हल किए बिना इसकी कीमत नहीं बढ़ेगी। यदि पेंड के निर्यात पर प्रति टन 50-80 डॉलर का अनुदान दिया जाए, तो समस्या हल हो सकती है। इसके लिए 1,500 से 2,000 करोड़ रुपये का खर्च होगा, जो खाद्य तेल से अर्जित राजस्व की तुलना में मामूली है।

कपास के मामले में भी सोयाबीन जैसी स्थिति है। बीटी कपास के शुरुआती दौर में उत्पादकता बढ़ी, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें गिरावट आई है। बीजों के विवाद के कारण पिछले दो दशकों में नए बीटी कपास के बीज नहीं आए। इस साल बारिश ने उत्पादकता और गुणवत्ता पर असर डाला है। भारतीय कपास निगम को खरीद नियमों में ढील देनी चाहिए थी, लेकिन उच्च नमी के कारण खरीद से इनकार कर दिया गया। नतीजतन, खुले बाजार में कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम हो गई हैं।

दाल उत्पादक भी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। सरकार ने दालों के आयात पर शुल्क हटा दिया और सस्ते आयात को प्राथमिकता दी। नतीजतन, दालों के आयात पर 31,000 करोड़ रुपये खर्च हुए। कुछ साल पहले तक हम दालों में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन सस्ते आयात ने किसानों को दाल की खेती से दूर कर दिया।

शक्कर उत्पादकों की हालत भी खराब है। भारत शक्कर उत्पादन में दूसरे स्थान पर है, लेकिन पिछले दस वर्षों में इसकी कीमतों में सबसे कम वृद्धि हुई। इसके बावजूद सरकार ने लगातार दो साल निर्यात पर रोक लगाई और एथेनॉल उत्पादन पर पाबंदियां लगा दीं। वैश्विक बाजार में ऊंची कीमतों के बावजूद किसान इस अवसर का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।

सरकार की मौजूदा नीति केवल उपभोक्ताओं और चुनावों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, जिससे कृषि उत्पादों को सही कीमत नहीं मिल रही। इससे कृषि घाटे का सौदा बन गई है। किसानों को राहत देने के नाम पर योजनाएं लागू की जाती हैं, लेकिन इससे मूल समस्याएं हल नहीं होतीं और किसान कर्ज में डूबे रहते हैं।

चुनावी घोषणापत्र में सभी पार्टियां कर्ज माफी का वादा कर रही हैं, लेकिन इससे केवल वित्तीय बोझ बढ़ता है। राज्य और केंद्र सरकार को किसानों के लिए दीर्घकालीन नीति बनानी होगी। जब तक खुले बाजार में कृषि उत्पादों को सही कीमत नहीं मिलेगी, किसान सरकार से नाराज रहेंगे। केवल चुनावी लाभ के लिए किए गए फैसले अंततः सरकार और किसानों दोनों के लिए नुकसानदायक हैं।