वर्तमान दौर की राजनीति इस मोड़ पर आ पहुंची है कि अब तो राजनेता, मीडिया, कार्यकर्ता और स्वयं जनता भी अपने जीवन से जुड़े अहम मुद्दों पर मतदान करने का सोच भी नहीं पा रही है। चंद्रपुर जिले में और महाराष्ट्र के तमाम इलाकों में इन दिनों भले ही आम जनता महंगाई से जूझ रही हो, बेरोजगारी यहां के युवाओं के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन चुकी हो, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जरूरी सुविधाएं महंगी हो चली हो, इसके बावजूद वोटिंग जनता के जरूरी मुद्दों पर नहीं हो पाना, इस लोकतंत्र के लिए घातक है। क्योंकि विकास ही एक ऐसा पैमाना है, जिसका खुलकर कोई विरोध नहीं कर पाता है। परंतु जनता किसी भी चुनावों में अपना जनप्रतिनिधि चुनते समय बेरोजगारी और महंगाई को दुर्लक्ष करते हुए उस नेता के रसूख का आकलन करने लगी है। मीडिया की ओर से बढ़-चढ़कर पेश की जाने वाली नेताओं की छवि और रोचन जानकारियों के चकाचौंध में जनता के आवश्यक मुद्दे गुम हुए जा रहे है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो लोकतंत्र और विकास का पहिया थम सा जाएगा।
नेताओं द्वारा इस सच्चाई को छुपाने के प्रयासों में, खासकर सत्ता में बैठे लोगों को मिल रही सफलता एक महत्वपूर्ण और दुखद पहलू है। आम जनता और चुनावी मैदान में उतरे हुए लोगों का संबंध अब जनता के मुद्दों से परे हो रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास का कहना है कि चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही के अंत तक मुद्रास्फीति की गति धीमी हो जाएगी। त्योहारों के बाद महंगाई कम होगी। जब खरीददारी का समय समाप्त हो जाएगा, तब कीमतें गिरेंगी। यह तर्क उन्होंने ब्याज दरों के संदर्भ में दिया। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरें बढ़ाई जाती हैं। हाल ही में हुई रिजर्व बैंक की बैठक में, ब्याज दरों को कम करने के प्रस्ताव को बहुमत से खारिज कर दिया गया। कुछ सप्ताह पहले सरकार के अधिकारियों ने सुझाव दिया था कि प्रमुख खाद्य वस्तुओं को मुद्रास्फीति मापने वाले सूचकांक से हटा दिया जाए, ताकि महंगाई कम दिखाई दे। यह एक ऐसा ही तर्क है जैसे कि स्कूल के गणित विषय को हटा दिया जाए ताकि कम छात्र फेल हों। उसी तरह, यदि खाने-पीने की वस्तुओं को मुद्रास्फीति सूचकांक से हटा दिया जाए, तो महंगाई भी गायब हो जाएगी।
पिछले साल इसी समय एक साधारण कामगार की तनख्वाह और अब उसकी तुलना में भोजन के लिए जरूरी चीजों की कीमत कितनी बढ़ी है और वेतन में कितनी कम वृद्धि हुई है। पिछले साल एक व्यक्ति के एक दिन के दो समय के भोजन पर लगभग 101.8 रुपये खर्च होते थे, जो इस साल 154.4 रुपये हो गए हैं। पूरे महीने के लिए पिछले साल 3,053 रुपये खर्च होते थे, जो अब 4,631 रुपये हो गए हैं। और यह सिर्फ शाकाहारी भोजन के लिए है।
यह देखा जा सकता है कि पिछले एक साल में दैनिक खर्च में 52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका असर आम लोगों पर स्पष्ट है, खासकर जब वेतन में सिर्फ 9-10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई हो। मतलब, आम लोगों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना कठिन हो गया है।
राज्य के मौजूदा चुनावों में इस सच्चाई का कोई प्रतिबिंब नहीं है। राजनीति का आम लोगों के जीवन से इतना अलगाव पहले कभी नहीं देखा गया। आज के समय में नेता छोटे-छोटे समूहों और उप-समूहों को साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी कोशिश है कि समाज में वर्ग और जाति के आधार पर विभाजन करें और इन छोटे नेताओं को लाभ देकर समर्थन हासिल करें। आर्थिक मुद्दे वास्तव में सबसे अहम हैं, लेकिन इन्हें नजरअंदाज करना आसान होता है। सत्ता में बैठे लोगों के लिए सामाजिक समस्याओं को बढ़ावा देना और उनसे ध्यान भटकाना सरल है। इन प्रयासों से वास्तविक समस्याएं हल नहीं होतीं, बल्कि उनकी गंभीरता और बढ़ जाती है।
बाजार का रिश्ता लेन-देन पर आधारित होता है, इसमें भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता। इसी तरह, मतदाताओं को भी राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ अपने संबंधों की फिर से समीक्षा करनी होगी। आजकल राजनीति में भी बाजार की तरह ही हलचल और अव्यवस्था देखने को मिल रही है। बाजार में दुकानों और बिक्री के तरीके बदलने से ग्राहकों के पास विकल्पों की कमी नहीं है। अब ऑनलाइन सेवाओं के कारण, लोग घर बैठे अपनी जरूरतें पूरी कर सकते हैं। अगर एक ऐप पर चीज़ न मिले, तो दूसरी पर मिल जाएगी। इसी तरह, राजनीतिक माहौल में भी उम्मीदवार एक दल से दूसरे दल की ओर आसानी से बढ़ जाते हैं। दल बदल लेते हैं।
राजनीति अब इतनी बदल चुकी है कि अगर किसी को एक पार्टी से टिकट नहीं मिलता, तो वह दूसरी या तीसरी पार्टी का रुख कर लेता है। और अगर कोई पार्टी भी न मिले, तो वह स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में खड़ा हो सकता है। यह स्थिति बाजार में बिकने वाले सामान की तरह है, जिसे जब कोई दुकान नहीं लेती, तो उसे सड़कों पर बेच दिया जाता है। आज की राजनीति में गठबंधन भी अहम भूमिका निभाते हैं। जैसे बाजार में दुकानदार अपने दोस्त के पास से सामान लाकर ग्राहक को देता है, वैसे ही पार्टियां भी एक-दूसरे के साथ गठबंधन कर लेती हैं। किसी के पास चुनाव क्षेत्र होता है, पर उम्मीदवार नहीं, तो दूसरी पार्टी मदद करती है। यह लेन-देन एक नई राजनीतिक शैली बन गई है।
राजनीतिक दलों ने बदलती परिस्थितियों से सबक लिया है, तो मतदाताओं को भी चाहिए कि वे अपनी विचारधारा और निष्ठा पर पुनर्विचार करें। अब समय आ गया है कि मतदाता भी भावनात्मक जुड़ाव से परे होकर, ठीक वैसे ही व्यवहार करें जैसे ग्राहक करते हैं। जब एक नेता एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आसानी से जा सकता है, तो मतदाताओं को भी अपनी निष्ठा को एक पार्टी तक सीमित नहीं रखना चाहिए। आजकल एक ही दुकान से सामान लेने का जमाना बीत चुका है, लोग अब सुविधानुसार खरीदारी करते हैं। इसी तरह, मतदाताओं को भी एक पार्टी से हमेशा जुड़े रहने की बजाय, उम्मीदवारों और उनके गुणों को देखना चाहिए। भावनाओं से हटकर, उन्हें लोकतंत्र की भलाई के लिए अपने राजनीतिक नजरिए में बदलाव लाना होगा।
राजनीति में आजकल बाजार जैसी उथल-पुथल और अव्यवस्था है। ऐसे में मतदाताओं को भी पुराने समय की पार्टी-निष्ठा छोड़कर, उम्मीदवार और उनके विचारों पर ध्यान देना चाहिए। लोकतंत्र की रक्षा के लिए मतदाताओं का यह कदम जरूरी है।