क्यों ढहने लगी भारत की विदेश नीति

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संपादकीय

“जब युद्ध ख़त्म हो जाए और नागरिकों को पता ही न चले कि असल में क्या हुआ था तो यह सिर्फ युद्ध नहीं, लोकतंत्र की एक पराजय होती है।” भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य तनावों के दौरान अक्सर सूचनाओं का प्रवाह सरकार की मर्जी पर टिका रहता है। परंतु जब एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष वह भी अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति, सार्वजनिक रूप से युद्ध की जानकारी साझा करे और उसमें 5 लड़ाकू विमानों के गिराए जाने का दावा करे, तब यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय बन जाता है।

डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई हो रही थी, विमान गिर रहे थे और उन्होंने दोनों देशों पर व्यापार रोक देने की धमकी देकर युद्ध रुकवाया। उनके मुताबिक कुल 5 विमान गिराए गए थे। अब सवाल यह है कि क्या यह सच है? और यदि है, तो भारत के नागरिकों से यह जानकारी क्यों छिपाई गई?

भारत सरकार की तरफ से ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कोई आधिकारिक वक्तव्य नहीं आया है कि उस दौरान भारत के कितने विमान गिरे?, क्या इनमें रफाल जैसे आधुनिक विमान भी शामिल थे? किन परिस्थितियों में यह नुकसान हुआ? इस नुकसान का देश की सैन्य रणनीति पर क्या असर पड़ा? इसके विपरीत ट्रंप का दावा, रॉयटर्स की तस्वीर, द हिंदू की हटाई गई रिपोर्ट, और द इकोनॉमिस्ट की अंतरराष्ट्रीय समीक्षा आदि सभी मिलकर यह इशारा करते हैं कि कोई न कोई बात जरूर है, जिसे छिपाया जा रहा है।

सरकार यह कह सकती है कि सैन्य मसलों पर चुप्पी एक रणनीतिक आवश्यकता है। पर क्या देश के नागरिकों का यह जानना अधिकार नहीं है कि उनके टैक्स से खरीदे गए विमानों का क्या हाल हुआ? और अगर वाकई हमारे रक्षा कवच में सेंध लगी थी, तो यह जानना और भी ज़रूरी हो जाता है।

रक्षा संबंधी सूचना गोपनीय हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र में जवाबदेही गोपनीय नहीं हो सकती। अब सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के बयान इस चुप्पी को और संदिग्ध बना देते हैं। उपसेना प्रमुख ले. जनरल राहुल आर. सिंह ने साफ कहा कि ऑपरेशन सिंदूर सिर्फ पाकिस्तान के खिलाफ नहीं था इसके पीछे चीन और तुर्की की भी भूमिका थी। चीन ने पाकिस्तान को रियल-टाइम इंटेलिजेंस, यानी ज़िंदा इनपुट दिए, और यह युद्ध उसके लिए हथियार परीक्षण की प्रयोगशाला बन गया।

जब सेना यह बातें सार्वजनिक मंचों पर कह रही है, तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इनपर अपनी स्थिति स्पष्ट करे। क्योंकि यही सरकार हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रंप जैसे आयोजनों में डोनाल्ड ट्रंप को अपने विशेष मित्र बताती रही है।

जब प्रेस पीछे हटता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। 7 मई को जब विजेता सिंह (द हिंदू) ने ट्वीट कर विमान गिरने की सूचना दी, तब उन्हें ट्रोल कर दबा दिया गया। खुद द हिंदू अखबार ने माफ़ी मांग ली और रिपोर्ट हटा दी। यह दिखाता है कि भारत में स्वतंत्र प्रेस पर अदृश्य लेकिन ताकतवर दबाव काम कर रहा है। यदि सच्चाई की खोज करने वालों को ट्रोलिंग, दबाव और अस्वीकार का सामना करना पड़े, तो फिर लोकतंत्र में संवाद कैसे बचेगा?

क्या यह “नया भारत” सूचना से डरता है? आज सवाल पूछना राष्ट्रविरोधी ठहराया जाने लगा है। परंतु इस लेख का मकसद आरोप लगाना नहीं, बल्कि जवाबदेही की मांग करना है। क्या भारत सरकार बताएगी कि पाँच विमान गिरे या नहीं? क्या उनमें से कोई रफाल विमान था? क्या चीन और तुर्की जैसे देशों की संलिप्तता की पुष्टि की जाएगी? क्या 7 मई की घटनाओं पर कोई आधिकारिक प्रेस ब्रीफिंग दी जाएगी? अगर नहीं, तो फिर जनता से आखिर छिपाया क्या जा रहा है?

जीत केवल युद्ध की नहीं, पारदर्शिता की होनी चाहिए। ऑपरेशन सिंदूर अगर रणनीतिक रूप से सफल था, तो भारत को गर्व से बताना चाहिए कि क्या और कैसे हुआ। और यदि इसमें कुछ नुकसान हुआ भी है, तो उसे छिपाने से ज्यादा ज़िम्मेदारी से स्वीकार करना देश की परिपक्वता का प्रमाण होगा। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की ताकत केवल उसकी सेना की शक्ति से नहीं, बल्कि उसकी जनता के विश्वास से आती है। और विश्वास तभी बनता है, जब सच बताया जाए – संपूर्ण और स्पष्ट। इसलिए अब वक्त है कि भारत सरकार संसद में, प्रेस में और जनता के सामने जवाब दे। पाँच विमान गिरे या नहीं?

नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत सरकार चीनी कंपनियों को 24 % हिस्सेदारी तक भारतीय कंपनियों में निवेश की अनुमति बिना सुरक्षा मंजूरी के देने का प्रस्ताव रख रही है। यह खबर चौंकाती है क्योंकि यह वही चीन है जिसके खिलाफ भारत के प्रधानमंत्री ने वर्षों से “चीनी सामान का बहिष्कार” का नारा दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत अब चीन पर भरोसा करने लगा है? और यदि हाँ, तो किस आधार पर?

प्रधानमंत्री के भाषणों में ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘वोकल फॉर लोकल’ और चीनी माल के बहिष्कार की गूंज सुनाई देती है। वहीं नीति आयोग की रिपोर्ट विपरीत दिशा में चलती दिखती है। चीनी निवेश का स्वागत, वो भी बिना सुरक्षा क्लीयरेंस के। क्या यह दोहरा चरित्र नहीं? एक तरफ दुकानदारों को विदेशी माल न बेचने की शपथ दिलाई जाती है, और दूसरी ओर सरकार खुद विदेशी निवेश को आमंत्रित करती है।

जब चीन दुश्मन था, तो अब मित्र कैसे? भारतीय वायुसेना के उपसेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह ने खुद स्वीकारा है कि चीन ने पाकिस्तान की मदद की, जिसके कारण भारत को लड़ाकू विमानों का नुकसान झेलना पड़ा। इंडोनेशिया में भारत के डिफेंस अटैशे कैप्टन शिव कुमार ने यह स्पष्ट कहा कि “राजनीतिक नेतृत्व की पाबंदियों के चलते भारतीय वायुसेना को नुकसान हुआ।” अगर चीन युद्ध में पाकिस्तान के साथ था, तो नीति आयोग किस आधार पर उसी चीन को भारत में निवेश के लिए खुला निमंत्रण देना चाहता है?

भारत के पांच लड़ाकू विमान गिरे, इसकी जानकारी सेना प्रमुख जनरल अनिल चौहान ने दी। परंतु कितने विमान गिरे? क्यों गिरे? क्या चीन जिम्मेदार था? इन सवालों पर राजनीतिक नेतृत्व की ओर से चुप्पी साफ दिखाई देती है। जब भारत का एक अधिकारी खुले मंच पर चीन की भूमिका स्वीकार करता है, तो विदेश मंत्री एस. जयशंकर चीन के सामने क्यों मौन हैं?

एस. जयशंकर ने हाल ही में शी जिनपिंग से मुलाकात की। मीडिया में फर्जी हेडलाइन चलाई गई कि “शी जिनपिंग जयशंकर के सामने गिड़गिड़ाने लगे”, जबकि हकीकत यह रही कि जयशंकर ने लिखा – “मैंने उन्हें भारत-चीन रिश्तों में आए बदलावों से अवगत कराया।” क्या यह विदेश मंत्री का कार्य है कि वह किसी विदेशी नेता को रिश्तों में बदलाव की जानकारी दें? क्या यह आत्मविश्वास है या कूटनीतिक लाचारी? SCO की बैठक में जयशंकर ने “कुछ देशों को आतंकवाद का समर्थन देने वाला” बताया। पर चीन का नाम नहीं लिया, जबकि यही चीन पाकिस्तान की मदद से भारत के खिलाफ खड़ा है। भारत कहता है-“भारत-चीन के रिश्तों में तीसरे देश की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए।” पर पाकिस्तान तो शामिल है, और चीन उसे समर्थन दे रहा है। तो यह बयान किसे भ्रमित कर रहा है। चीन को या देश को?

अक्टूबर 2024 में बड़ी-बड़ी हेडलाइन चलीं थी कि -“भारत-चीन के बीच सीमा विवाद खत्म हुआ।” लेकिन 6 महीने बाद सामने आया कि चीन अब भी पाकिस्तान की मदद कर रहा है। यह मीडिया की जिम्मेदारी थी कि वह जनता को सच बताती। परंतु गोदी मीडिया ने या तो खबरें दबा दीं, या फिर झूठी कहानियाँ गढ़ दीं।

जहाँ एक ओर एयर इंडिया के विमान क्रैश की हर थ्योरी पर चर्चा होती है, वहीं लड़ाकू विमानों की दुर्घटनाओं पर सरकार मौन है। क्या राजनीतिक नेतृत्व ने सैन्य कार्रवाई पर अनावश्यक बंदिशें लगाई थीं? क्या पायलट की गलती थी या आदेशों की मजबूरी? कोई रिपोर्ट, कोई पारदर्शिता नहीं।

विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि – “मैं एक छोटी अर्थव्यवस्था होकर एक बड़ी अर्थव्यवस्था से लड़ने नहीं जा सकता।” पर क्या इसलिए देश की सुरक्षा और स्वाभिमान गिरवी रख देना सही है? यदि भारत की नीति यही है कि वह सामरिक खतरों के बावजूद आर्थिक निवेश के लिए किसी भी देश को छूट देगा, तो आने वाले समय में यह नीति देश के लिए भारी खतरे पैदा कर सकती है।

क्या चीनी कंपनियों को रियायत देना सुरक्षा नीति का उल्लंघन नहीं? क्या देश की जनता को धोखे में रखा जा रहा है? क्या भारत की विदेश नीति अब भी चीन के सामने लाचार और डरपोक है? इस पर संसद, मीडिया और समाज को खुलकर सवाल पूछने चाहिए। वरना “चीनी निवेश” देश के लिए रणनीतिक आत्मसमर्पण में बदल सकता है।