ECI की चुनौती और SC की परीक्षा

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संपादकीय

लोकतंत्र की नब्ज़ पर आख़िरी वार

चुनाव आयोग बनाम सुप्रीम कोर्ट के बीच फंस चुका मसला अब लोकतंत्र की बुनियाद पर सीधा सवाल खड़े करने लगा है। भारतीय लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट को हमेशा अंतिम चौकीदार माना गया है। जब भी सरकारें या संस्थाएँ अपने अधिकारों से बाहर जाती हैं, तो नागरिक उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट न्याय का तराजू सीधा रखेगा। लेकिन हाल ही में चुनाव आयोग (ECI) और सुप्रीम कोर्ट (SC) के बीच खिंची यह रस्साकशी उस भरोसे की जड़ें हिला रही है। सवाल उठ रहा है कि क्या अब अदालत का इक़बाल सत्ता की मर्जी के आगे झुक रहा है ?
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवाई के सामने यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की साख का सवाल है। कई विश्लेषक इसे “गवाई की आखिरी परीक्षा” कह रहे हैं। उनका कहना है कि अगर इस बार अदालत पीछे हट गई, तो यह लोकतंत्र की दीवार पर वह आखिरी चोट होगी, जिसके बाद जनता का विश्वास टूट सकता है। सुप्रीम कोर्ट का झुकना, आम आदमी की आकांक्षाओं और न्यायपालिका की गरिमा के लिए घातक साबित हो सकता है।
चुनाव आयोग का काम सीधा और साफ़ है, हर योग्य नागरिक को मतदान का अधिकार सुनिश्चित करना। वह एक सेवा प्रदाता है, जिसका काम चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए रखना है। लेकिन हाल के घटनाक्रमों में आयोग की भाषा और रवैया ऐसा दिख रहा है, जैसे वह किसी क़ानून लागू कराने वाली एजेंसी या सत्ता के प्रवक्ता की तरह बोल रहा हो।
मतदाता सूची के पुनरीक्षण (SIR) पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को नजरअंदाज़ करना। खुलेआम कहना कि “हमारे काम में दख़ल मत दीजिए।” RTI में जानकारी देने से बचना। ये सब उस स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव आयोग की छवि को धूमिल करते हैं, जो कभी लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता था।
ज्ञानेश कुमार जैसे अधिकारी बार-बार सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देने की हिम्मत क्यों कर रहे हैं ? इसका जवाब सबको मालूम है, पर कोई खुले में बोलना नहीं चाहता। सत्ता के गलियारों से मिलने वाले अप्रत्यक्ष संकेत और राजनीतिक संरक्षण ही ऐसे साहस को जन्म देते हैं। जब किसी संवैधानिक संस्था को लगता है कि उसके पीछे ताक़तवर लोग खड़े हैं, तो वह न केवल नियमों को ताक़ पर रखती है बल्कि अदालत को भी परखने लगती है।
भारतीय संविधान सुप्रीम कोर्ट को सर्वोच्च अधिकार देता है। संसद द्वारा बनाए गए कानून तक को अदालत रद्द कर सकती है, अगर वे संविधान के विरुद्ध हों। NJAC कानून को संसद ने पारित किया, सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया। इलेक्टोरल बॉन्ड योजना सरकार की पहल थी, अदालत ने खारिज की। जब संसद तक के कानूनों की समीक्षा का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है, तो चुनाव आयोग का यह दावा कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण केवल उसका विशेषाधिकार है, न केवल कानूनी रूप से कमजोर है बल्कि लोकतांत्रिक संतुलन के खिलाफ भी है।
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि धारा 21(3) के तहत किसी भी फैसले के पीछे कारण दर्ज करना अनिवार्य है। लेकिन जब एक आरटीआई दाखिल की गई तो आयोग ने कहा कि ऐसा कोई रिकॉर्ड ही नहीं है। यह दोहरा रवैया आयोग की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर गहरी चोट है। जब संवैधानिक संस्था अपने ही दावे के विपरीत व्यवहार करे, तो जनता में उसका भरोसा कैसे कायम रहेगा ?
यह विवाद सिर्फ़ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं है। यह लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है। अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में भी नरमी दिखाता है, तो यह संकेत होगा कि संवैधानिक संस्थाएँ सत्ता के दबाव के आगे झुक रही हैं। और यदि ऐसा होता है, तो आम आदमी के अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मजबूती सभी पर गहरा असर पड़ेगा।
लोकतंत्र मजबूत तभी रहता है जब उसकी संस्थाएँ अपने दायरे और जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाती हैं। चुनाव आयोग का वर्तमान रवैया इस संतुलन को बिगाड़ रहा है। अब मुख्य न्यायाधीश गवाई और उनकी पीठ के सामने यह मौका है कि वे दिखाएँ, सुप्रीम कोर्ट अब भी देश का सर्वोच्च प्रहरी है, न कि सत्ताधारी ताक़तों का खिलौना। यदि इस बार भी अदालत ने आंखें मूंद लीं, तो यह सिर्फ़ एक कानूनी हार नहीं होगी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और नागरिकों की उम्मीदों की सबसे बड़ी पराजय होगी।
भारतीय लोकतंत्र का ढांचा तभी मजबूत रहता है जब उसकी संस्थाएं अपने संवैधानिक दायरे में रहकर ईमानदारी से काम करें। हाल के विवादों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या अब संवैधानिक संस्थाएं आपसी टकराव और सत्ता के दबाव में अपना संतुलन खो रही हैं। आधार और मतदाता सूची के मामले में चुनाव आयोग ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के अधिकार पर उंगली उठाई, उसने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को हिला कर रख दिया है।
संविधान साफ कहता है कि किसी भी प्रावधान की अंतिम व्याख्या का अधिकार केवल सुप्रीम कोर्ट के पास है। चाहे वह अनुच्छेद हो, चुनाव आयोग की शक्तियाँ हों, या राज्यपाल का विवेक, सभी पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही अंतिम माना जाता है। चुनाव आयोग का यह दावा कि “हमारे विवेक से काम करेंगे, सुप्रीम कोर्ट को दखल देने का हक नहीं” न केवल असंवैधानिक है बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादाओं के खिलाफ भी है।
इतिहास गवाह है कि संसद द्वारा पारित कई कानून सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक मानकर खारिज किए हैं, चाहे वह NJAC कानून हो या इलेक्टोरल बॉन्ड। जब संसद के कानून भी न्यायिक समीक्षा से गुजर सकते हैं, तो चुनाव आयोग का रवैया कि “हमसे कोई सवाल न पूछे” अहंकारपूर्ण है। संवैधानिक संस्थाओं के बीच ऐसा टकराव लोकतंत्र को कमजोर करता है।
बिहार में मतदाता सूची (SIR) और आधार जोड़ने के मामले में चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट के चार आदेशों के बाद ही कार्रवाई करनी पड़ी। यह देरी और टालमटोल दर्शाता है कि आयोग केवल वही कर रहा था जो उसे उचित लगा, न कि जो कानूनन ज़रूरी था। इसके साथ ही RTI के तहत जानकारी न देना पारदर्शिता पर सीधा हमला है।
चुनाव आयोग के अधिकारी बार-बार सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी क्यों कर रहे हैं ? यह सवाल आम लोगों के मन में उठना लाजमी है। सत्ता के समर्थन या राजनीतिक संकेतों के बिना कोई संवैधानिक संस्था इतनी आक्रामक भाषा का प्रयोग नहीं कर सकती। जब संस्थाएं महसूस करने लगें कि उनके पीछे ताक़तवर लोग खड़े हैं, तब वे नियम-कानून की परवाह नहीं करतीं।
सुप्रीम कोर्ट केवल कानून की व्याख्या करने वाली संस्था नहीं, बल्कि लोकतंत्र के विश्वास की अंतिम दीवार है। अगर यह दीवार कमजोर पड़ी, तो न केवल नागरिकों का भरोसा टूटेगा, बल्कि संवैधानिक ढांचे की नींव भी दरक जाएगी। अदालत को यह दिखाना होगा कि उसकी गरिमा सत्ता या किसी संस्था के अहंकार से ऊपर है।
राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि इस तरह के टकराव कभी-कभी नैरेटिव (कथा) गढ़ने के लिए पैदा किए जाते हैं, ताकि किसी संवेदनशील मुद्दे को दबाया जा सके या सार्वजनिक बहस को भटकाया जा सके। लेकिन जब यह खेल संवैधानिक संस्थाओं के जरिए खेला जाए, तो उसका असर सीधा लोकतंत्र की साख पर पड़ता है।
चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों ही लोकतंत्र के स्तंभ हैं। लेकिन जब इनमें से कोई एक अपनी मर्यादा भूलता है, तो पूरी प्रणाली खतरे में आ जाती है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह अपने अधिकार और गरिमा की रक्षा दृढ़ता से करे। वहीं चुनाव आयोग को याद रखना होगा कि उसका काम सत्ता के संकेतों पर चलना नहीं, बल्कि जनता के अधिकारों की रक्षा करना है। यदि संस्थाएं खुद अपनी सीमाओं को नहीं मानेंगी, तो लोकतंत्र की आत्मा घायल होगी और उसका खामियाज़ा हर नागरिक को भुगतना पड़ेगा।