संपादकीय
महाराष्ट्र की राजनीति में हाल ही में जो विवाद उठा है, वह हमारे लोकतंत्र की सच्चाई को उजागर करता है। यह सिर्फ एक फोन कॉल या राजनीतिक बयान का मामला नहीं है, बल्कि यह सत्ता के दंभ, भ्रष्टाचार की संस्कृति और ईमानदार अफसरों के अपमान की कहानी है।
डीएसपी अंजन कृष्णा जब सोलापुर जिले में अवैध खनन रोकने के लिए पहुंचीं, तो वे केवल अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन कर रही थीं। कानून और व्यवस्था की रक्षा करना उनका दायित्व है। लेकिन जब एक ईमानदार अधिकारी को काम करते समय सत्ता की ताकत बाधा डाले, तब सवाल उठना लाज़मी है, क्या इस देश में कानून नेताओं की जेब में है?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने फोन पर अंजन कृष्णा को न केवल डांटा, बल्कि “तू-तड़ाक” की भाषा का इस्तेमाल करते हुए कार्रवाई रोकने का आदेश भी दिया। यह व्यवहार न केवल गैर-जिम्मेदाराना है, बल्कि लोकतंत्र और प्रशासनिक गरिमा की अवमानना भी है। सवाल यह है कि जब सत्ता में बैठे नेता ही ईमानदार अफसरों को धमकाने लगें, तो आम जनता न्याय और पारदर्शिता की उम्मीद किससे करे?
अजीत पवार कोई नए विवादों में घिरे नेता नहीं हैं। उन पर पहले भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। याद कीजिए, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने कहा था कि “अजीत दादा जेल जाएंगे”। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एनसीपी को “नेचुरली करप्ट पार्टी” कहा था। मगर जैसे ही पवार भाजपा गठबंधन का हिस्सा बने, सारे मामले हवा हो गए। यही है भारतीय राजनीति का दोहरा चेहरा। सत्ता के हिसाब से भ्रष्टाचार या तो गुनाह है या फिर भूल-चूक।
यह मामला केवल एक अफसर का अपमान नहीं है, बल्कि महिला गरिमा पर भी हमला है। एक महिला आईपीएस अधिकारी से सत्ता का दूसरा सबसे बड़ा नेता तू-तड़ाक की भाषा में बात करता है और धमकाता है। यह न केवल लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन है, बल्कि उस नारे पर भी सवाल है जिसे भाजपा अक्सर दोहराती है – “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”। जब बेटियाँ अफसर बनकर ईमानदारी से काम करें और उन्हें ही अपमानित किया जाए, तो यह नारा खोखला प्रतीत होता है।
एनसीपी ने इस पूरे प्रकरण पर सफाई दी कि उपमुख्यमंत्री ने अफसर को नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं को शांत करने के लिए कहा था। यह तर्क बचकाना और अविश्वसनीय है। अगर कार्यकर्ताओं को शांत करना ही मकसद था, तो अफसर को क्यों डांटा गया? क्यों उन्हें आदेश दिया गया कि कार्रवाई रोक दी जाए? यह सफाई असल में भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने की एक कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं।
यह घटना महाराष्ट्र की राजनीति का ही नहीं, पूरे भारतीय लोकतंत्र का प्रतिबिंब है। सत्ता में बैठे नेता कानून को अपने मुताबिक मोड़ते हैं, भ्रष्टाचार के मामलों पर पर्दा डालते हैं और ईमानदार अधिकारियों को धमकाते हैं। जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए बड़े-बड़े भाषण दिए जाते हैं, मगर जमीनी हकीकत यही है कि भ्रष्टाचार को संरक्षण और ईमानदारी को दंड मिलता है।
लोकतंत्र की असली प्रहरी जनता होती है। यदि जनता इस तरह की घटनाओं पर चुप रही, तो सत्ता का दंभ और भ्रष्टाचार और भी मजबूत होगा। ईमानदार अफसरों की संख्या कम होती जाएगी और व्यवस्था पूरी तरह नेताओं की मर्जी पर चलने लगेगी। यही समय है जब समाज को यह तय करना चाहिए कि वह सत्ता और भ्रष्टाचार के गठजोड़ को स्वीकार करेगा या उसके खिलाफ आवाज उठाएगा।
अजीत पवार और अंजन कृष्णा का यह प्रकरण हमें एक गहरी सीख देता है। यह दिखाता है कि भारत में ईमानदारी की राह कितनी कठिन है और सत्ता किस तरह कानून से ऊपर खुद को मानने लगी है। लोकतंत्र की असली परीक्षा यही है, क्या हम भ्रष्टाचार और सत्ता के दंभ के आगे झुकेंगे या फिर ईमानदारी और न्याय के लिए आवाज उठाएँगे।
महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर सवालों के घेरे में है। उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और डीएसपी अंजन कृष्णा के बीच हुई बातचीत ने यह साफ कर दिया है कि जब कोई अफसर ईमानदारी से काम करने की कोशिश करता है, तो सत्ता का दबदबा किस तरह उसे रोक देता है।
एनसीपी अध्यक्ष सुनील तटकरे कहते हैं कि अजीत पवार सीधे बोलने वाले नेता हैं और कभी किसी अवैध काम का समर्थन नहीं करते। वहीं, एनसीपी नेता अनिल पाटिल तो इतना तक कह देते हैं कि यदि कोई अफसर पूछे “आप कौन हैं?”, तो यह अफसर की गलती है। यानी अफसर अगर अपने काम के बीच सत्ता से सवाल पूछ ले, तो यह ‘औकात दिखाने’ जैसा अपराध हो जाता है! यह सोच अपने आप में लोकतंत्र की भावना का मज़ाक उड़ाती है।
यह वही अजीत पवार हैं जिनके बारे में कभी देवेंद्र फडनवीस ने कहा था कि “अजीत दादा चक्की पिसिंग पिसिंग पिसिंग” यानी जेल जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी पार्टी एनसीपी को “नेचुरली करप्ट पार्टी” करार दिया था। लेकिन आज वही पवार सत्ता के साझीदार हैं और उन पर लगे सारे आरोप मानो हवा में उड़ गए। यही नहीं, भाजपा ने जिन नेताओं पर पहले भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, जैसे छगन भुजबल, अशोक चव्हाण या एकनाथ शिंदे गुट के विधायक। सत्ता समीकरण बदलते ही सबके खिलाफ जांच ठंडी पड़ गई। यह सत्ता और नैतिकता का सबसे बड़ा दोहरा चेहरा है।
उद्धव ठाकरे गुट की शिवसेना के सुधाकर आंधले ने साफ कहा कि जब कोई अफसर गलत काम रोकता है, तो उसे धमकाया जाता है। आम आदमी पार्टी के विजय कुंभार ने भी इसे सत्ता का दुरुपयोग बताया। उनका कहना है कि जब अंजन कृष्णा अवैध खुदाई रोकने पहुंचीं, तो लोगों ने तुरंत अजीत पवार को फोन मिलाया और फिर डिप्टी सीएम ने खुद कार्रवाई रोकने का आदेश दिया। सवाल सीधा है – डीएसपी भ्रष्टाचार रोक रही थीं और अजीत दादा उन्हें रोक रहे थे। इसका मतलब साफ है कि सत्ता खुद भ्रष्टाचार के रास्ते में अवरोध बन रही थी।
अजीत पवार ने ट्वीट कर सफाई दी कि उनका उद्देश्य कानून-व्यवस्था में दखल देना नहीं था, बल्कि शांति बनाए रखना था। उन्होंने पुलिस बल और महिला अफसरों का सम्मान करने की बात भी लिखी। लेकिन सवाल यह है कि अगर मकसद सिर्फ शांति बनाए रखना था, तो क्यों कार्रवाई रोकने का आदेश दिया गया? क्यों एक ईमानदार अफसर को तू-तड़ाक की भाषा में धमकाया गया?
यह विवाद किसी एक अफसर या नेता तक सीमित नहीं है। यह हमारे राजनीतिक तंत्र की गहरी बीमारी को उजागर करता है। सत्ता में बैठे नेताओं के लिए भ्रष्टाचार रोकने वाला अफसर समस्या है, जबकि भ्रष्टाचार करने वाले उनके ‘दोस्त’ सुरक्षित हैं। चाहे जमीन का सौदा हो, अवैध खनन हो या बड़े बिजनेस समूहों को फायदा पहुँचाने का मामला। सत्ता हमेशा ताकतवरों के पक्ष में खड़ी नजर आती है। गौतम अडानी के खिलाफ अमेरिकी अदालत में गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बावजूद भारत में कोई कार्रवाई न होना इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है।
डीएसपी अंजन कृष्णा का मामला दिखाता है कि ईमानदारी से काम करने वाले अफसर किस तरह सत्ता की दबंगई का शिकार होते हैं। लोकतंत्र का असली संकट यही है, जब सत्ता कानून से ऊपर खड़ी हो जाती है और भ्रष्टाचार को संरक्षण देती है। जनता के सामने सवाल यही है कि क्या हम इस अपमान और इस दंभ को यूँ ही बर्दाश्त करते रहेंगे या ईमानदारी और पारदर्शिता की माँग करेंगे।










