ZP में शिक्षा का गिरता स्तर : 3,61,687 छात्रों का भविष्य संकट में

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■ शिक्षकों के 260 पद रिक्त, 1,549 स्कूलों में अव्यवस्था

■ 140 तरह के काम का बोझ उठाते हैं शिक्षक, तो पढ़ाई कैसे होगी ?

■ बजट घटा, मूलभूत सुविधाएं नदारद, कैसे पढ़ेंगे बच्चे ?

चंद्रपुर.
जिले में स्थानीय जिला परिषद के शिक्षा विभाग की ओर से चलाई जाने वाली स्कूलों में शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है। यह बात स्वयं प्रदेश के शिक्षा मंत्री दादाजी भुसे ने अपने चंद्रपुर दौरे के समय कही थी। जिला परिषद के स्कूलों की विद्यार्थी संख्या घटने पर उन्होंने गंभीर चिंता जताई। लेकिन इसके बाद भी यहां का शिक्षा विभाग गहरी नींद से जाग नहीं पाया है। जिला परिषद स्कूलों में शिक्षा का स्तर लगातार गिरता ही जा रहा है। जिले की 2,461 शालाओं में से 1,549 जि.प. स्कूलें हैं। इनमें 3 लाख 61 हजार 687 विद्यार्थी पढ़ते हैं। इन छात्रों का भविष्य संकट में नजर आ रहा है। क्योंकि आज भी यहां के स्कूलों में शिक्षकों के 260 पद रिक्त हैं। इन 1,549 स्कूलों में अव्यवस्था का आलम नजर आता है। संबंधित सरकारी शिक्षकों पर 140 तरह के काम का बोझ डाला गया है। ऐसे में यह शिक्षक कब और कैसे पढ़ाई करवाते होंगे? इसका अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। वहीं सरकार ने शिक्षा का बजट घटा दिया है। चंद्रपुर जिला परिषद की अधिकांश स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं नदारद हैं। ऐसे में यहां के नन्हें छात्र कैसे पढ़ेंगे? यह चिंता प्रत्येक गरीब अभिभावकों को बरसों से सता रही है।

सरकारी उदासीनता
शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है। लेकिन महाराष्ट्र के जिलों से जो तस्वीर सामने आ रही है, वह न केवल चिंताजनक है बल्कि शिक्षा व्यवस्था की बदहाली और सरकारी लापरवाही का खुला सबूत भी है। सरकार कागज़ों पर शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कई योजनाएं चला रही है, लेकिन वास्तविकता इसके बिल्कुल उलट है। ज़िला परिषद (जि.प.) की प्राथमिक और माध्यमिक शालाओं को लगातार नए संकटों का सामना करना पड़ रहा है।

कॉन्वेंट की प्रतिस्पर्धा में ZP पिछड़ रहा
प्राइवेट और कॉन्वेंट स्कूलों की तेज़ी से बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने जि.प. स्कूलों की छात्र संख्या पर सीधा असर डाला है। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे इन सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं, लेकिन वही स्कूल सबसे ज़्यादा उपेक्षित हैं। राज्य सरकार हर साल बजट में शिक्षा मद को घटाती जा रही है। इसका असर साफ़ दिख रहा है कि मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। आधुनिक तकनीक आधारित शिक्षण साधनों की कमी नजर आ रही है।

जर्जर इमारतें और असुरक्षित ढांचा
यह केवल प्रशासनिक असफलता नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के भविष्य से किया गया एक बड़ा खिलवाड़ है। चंद्रपुर जिला परिषद के अधिकांश स्कूलें जर्जर हो चुकी हैं। यहां पढ़ने वाले लाखों बच्चे असुरक्षित है। आलम यह है कि इन बच्चों के सिर पर किसी भी समय स्कूल की छत ढह सकती है। सुविधाओं का अभाव तो है ही, ऐसे में जानलेवा स्थितियां बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा नहीं कर पा रही है। इस गंभीर समस्या की ओर से जिले के स्थानीय जनप्रतिनिधियों की ओर से घोर अनदेखी की जा रही है। विशाल प्रशासनिक इमारतों की चकाचौंध में स्कूल की इमारतें खंडहर में तब्दील होने लगी है।

शिक्षा से ज़्यादा गैर-शैक्षणिक काम का बोझ शिक्षकों पर
जिला परिषद की कई शालाओं में शिक्षकों की संख्या बेहद कम है। जो हैं भी, वे बीएलओ जैसे चुनावी कार्यों और अन्य गैर-शैक्षणिक जिम्मेदारियों में उलझे रहते हैं। 140 तरह के काम का बोझ शिक्षक उठाते हैं, तो पढ़ाई कब और कैसे होगी? नियमित तबादले, अनुपस्थित शिक्षक, और खाली पदों की लंबी सूची ने शिक्षा की रीढ़ तोड़ दी है। यह व्यवस्था बच्चों को शिक्षा देने से ज़्यादा, शिक्षकों को “क्लर्क” बनाने में लगी है।

सुरक्षा और सुविधा का अभाव
चंद्रपुर जिला परिषद के तहत आने वाले स्कूलों में 475 सीसीटीवी लगाए गए, लेकिन 549 नए सीसीटीवी का प्रस्ताव अब तक धूल खा रहा है। कई स्कूलों में शौचालय साफ करने वाले कर्मचारी नहीं है। भोजन कक्ष का अभाव है। इमारतें जर्जर, लेकिन ट्रक्चर ऑडिट तक नहीं किया जा सका है। संबंधित शिक्षकों को वेतन समय पर नहीं मिलता है। सेवानिवृत्त शिक्षकों के लाभ 2 साल से लंबित है। क्या यह शिक्षा विभाग है या एक “उपेक्षा विभाग”?

आँकड़े चौंकाने वाले
जिले की 2,461 शालाओं में से 1,549 जि.प. स्कूलें हैं, जहां 3 लाख 61 हजार 687 छात्र पढ़ते हैं। इतने बड़े भविष्य को दांव पर लगाना सिर्फ़ प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि अपराध है। शिक्षा का यह संकट भविष्य का विस्फोट हो सकता है। सरकारें बदलती रहीं, योजनाएं आती-जाती रहीं, लेकिन ज़िला परिषद स्कूलों की स्थिति बद से बदतर होती गई। निजी शिक्षण संस्थानों को प्रोत्साहन और सरकारी स्कूलों की उपेक्षा, यह नीति स्पष्ट करती है कि शिक्षा अब “सेवा” नहीं बल्कि “व्यवसाय” बन चुकी है। यदि सरकार ने अभी भी शिक्षा बजट बढ़ाने, शिक्षकों की संख्या सुधारने और जि.प. स्कूलों की हालत दुरुस्त करने की ठोस पहल नहीं की, तो 3.6 लाख छात्रों का भविष्य अंधकार में धकेलना तय है। यह केवल शिक्षा का संकट नहीं, बल्कि समाज और लोकतंत्र की नींव को हिलाने वाला संकट है। सवाल यही है कि क्या सरकार और प्रशासन इस गंभीर स्थिति को अब भी “आंकड़ों का खेल” समझते रहेंगे या सचमुच बच्चों के भविष्य को प्राथमिकता देंगे?

स्कूलों की जिम्मेदारी और गहन पड़ताल
बचपन जीवन की सबसे कोमल अवस्था है। यह वह दौर है जब बच्चे समाज, शिक्षा और जीवन के संस्कार ग्रहण करते हैं। किंतु विडंबना यह है कि आज वही मासूम बच्चे असुरक्षित माहौल में शिक्षा ग्रहण करने को मजबूर हो रहे हैं। केजी, बालवाड़ी या प्राथमिक शिक्षा संस्थानों में बच्चों की देखभाल करना और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना केवल माता-पिता की नहीं, बल्कि समाज और सरकार दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है।

सरकारी पहल और स्कूलों की जवाबदेही
राज्य सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि सभी शैक्षणिक संस्थान अपनी उपलब्ध सुविधाओं का विवरण एक पोर्टल पर दर्ज करें। इसका उद्देश्य यह है कि अभिभावकों, शिक्षकों और समाज को पता चल सके कि बच्चों को वास्तव में कैसा माहौल मिल रहा है। बाल न्याय अधिनियम 2015 और अन्य कानून भी साफ कहते हैं कि स्कूलों को बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और संरक्षण सुनिश्चित करना ही होगा। लेकिन जमीनी हकीकत कड़वी है। कई जगहों पर बच्चों के साथ अत्याचार की घटनाएं हो रही हैं, कक्षाओं और शौचालयों में अस्वच्छता है, शिक्षक व सहायकों की पृष्ठभूमि की जांच नहीं होती, और सुरक्षा इंतज़ाम केवल कागज़ों पर सीमित रह जाते हैं। चंद्रपुर जिले की हालिया घटनाएं इसकी गवाह हैं। सवाल यह उठता है कि जब मासूम बच्चे स्कूल में भी सुरक्षित नहीं हैं, तो आखिर वे कहां सुरक्षित होंगे?

कानून और नियमों की अनदेखी
बाल न्याय अधिनियम और POCSO कानून साफ कहते हैं कि बच्चों के साथ किसी भी तरह का शोषण, हिंसा या दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए। घर से लेकर स्कूल और वापस तक का पूरा वातावरण सुरक्षित होना चाहिए। हर स्कूल में चाइल्ड प्रोटेक्शन कमिटी होनी चाहिए, जिसमें शिक्षक, अभिभावक और छात्र प्रतिनिधि हों। लेकिन अक्सर यह समितियां केवल कागज़ों पर बनती हैं, सक्रियता में नहीं। पुलिस वेरिफिकेशन भी नाम मात्र का रह जाता है। जिन लोगों का सीधा संपर्क बच्चों से है, उनकी पृष्ठभूमि जांचे बिना नियुक्तियां की जाती हैं। यह लापरवाही सीधे बच्चों की सुरक्षा को खतरे में डालती है।

सुविधाओं का घोर अभाव
सुरक्षित माहौल केवल कानूनों से नहीं, बल्कि बुनियादी सुविधाओं से भी तय होता है। पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में बच्चों के लिए अलग और पर्याप्त शौचालय नहीं होते। आपातकालीन निकास के रास्ते नहीं होते। आग, भूकंप जैसी आपदाओं की स्थिति में बचाव व्यवस्था नाममात्र की होती है। बच्चों की देखभाल के लिए प्रशिक्षित स्टाफ की कमी रहती है। इस स्थिति में माता-पिता पर भी जिम्मेदारी है कि वे स्कूल चुनते समय केवल फीस और सिलेबस न देखें, बल्कि स्कूल की सुरक्षा, मान्यता, साफ-सफाई और शिक्षकों का व्यवहार भी जांचें।

समाज और सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी
बच्चों की सुरक्षा का सवाल किसी एक संस्था तक सीमित नहीं है। इसमें तीन स्तंभ हैं – सरकार को चाहिये कि वे कानून सख्ती से लागू करे, निरीक्षण व्यवस्था पारदर्शी बनाए। स्कूल प्रबंधन को चाहिये कि वे सुविधाओं को प्राथमिकता दे, जिम्मेदार स्टाफ नियुक्त करे और सुरक्षा के नियमों का पालन करे। साथ ही अभिभावकों को चाहिये कि वे सतर्क रहें, स्कूल की हर गतिविधि पर निगरानी रखें और बच्चों को खुलकर अपनी बात कहने का साहस दें।

मासूमियत की रक्षा ही असली शिक्षा
यदि हम बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाए तो शिक्षा की पूरी प्रक्रिया का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। बच्चा डर, असुरक्षा और हिंसा के साये में रहकर कभी स्वस्थ मानसिक विकास नहीं कर सकता। आज आवश्यकता है केवल नीतियों और पोर्टल्स की नहीं, बल्कि कड़े अमल और जिम्मेदारी की। समाज को यह समझना होगा कि बच्चों की सुरक्षा कोई “एड-ऑन” सुविधा नहीं, बल्कि शिक्षा का सबसे बुनियादी और अनिवार्य हिस्सा है। यदि यह व्यवस्था मजबूत नहीं हुई, तो हम आने वाली पीढ़ी को केवल स्कूल भेजकर नहीं, बल्कि खतरे में धकेलकर गुनाह कर रहे होंगे।