वोट के अधिकार के खिलाफ RSS की जंग है पुरानी

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संपादकीय

RSS अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वोट के अधिकार के मामले में पुरानी सोच को गहराई से समझना होगा, तभी हम वर्तमान में घटित हो रहे वोट के अधिकार से संबंधित आंदोलनों के महत्व को समझ पाएंगे। आज की परिस्थितियों को समझने के लिए हमें इतिहास में झांकना जरूरी है। जब 1952 में भारत में पहली बार आम चुनाव हुए, तब संघ (RSS) के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने साफ लिखा था कि “सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार देना देश को बर्बाद कर देगा।” संघ का तर्क था कि केवल पढ़े-लिखे और संपत्ति वाले लोग ही वोट देने के योग्य हैं। यानी गरीब, अशिक्षित और वंचित तबके इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रखे जाने चाहिए। यह विचारधारा संविधान के सीधे विरोध में खड़ी थी, क्योंकि संविधान ने हर नागरिक को बराबरी का अधिकार दिया। और यही वह विचार है जो आज भी परोक्ष रूप से जीवित दिखाई देता है।
सवाल यह उठता है कि वोट के अधिकार पर संकट के बादल क्यों मंडरा रहे हैं ? लोकतंत्र से यह छल है या सुधार की आड़ में कुछ और ही चल रहा है ? भारत की आज़ादी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी सार्वभौमिक मताधिकार – यानी हर नागरिक को, चाहे उसका धर्म, जाति, लिंग या आर्थिक स्थिति कैसी भी हो, वोट देने का समान अधिकार। यही लोकतंत्र की असली ताक़त है। लेकिन आज वही अधिकार संदेहों और साज़िशों के घेरे में है।
इतिहास गवाह है कि आज़ादी के समय कुछ विचारधाराएं ऐसी थीं जो आम जनता को सार्वभौमिक मताधिकार देने के खिलाफ थीं। संघ (RSS) उस दौर में हर किसी को वोट देने का अधिकार देने का समर्थक नहीं था। उन्हें लगता था कि हर नागरिक “पात्र” नहीं है। आज जब बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के नाम पर चुनाव आयोग ने मतदाता सूची की समीक्षा शुरू की है, तो यह सवाल फिर से खड़ा हो गया है – क्या कहीं लोकतंत्र को पीछे धकेलने की कोशिश तो नहीं हो रही?
चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक प्रक्रिया शुरू की और 11 दस्तावेज़ अनिवार्य कर दिए, जिनके बिना कोई वोटर लिस्ट में नाम नहीं जुड़ सकता। सुप्रीम कोर्ट को दखल देकर आधार कार्ड को मान्य कराना पड़ा। लेकिन आयोग का रवैया ऐसा लग रहा है जैसे वह लोगों को शामिल करने की बजाय बाहर निकालने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहा है। आंकड़े चौंकाने वाले हैं – 65 लाख लोगों का नाम पहले ही हटाने की चर्चा है। आशंका जताई जा रही है कि करीब 2 करोड़ मतदाता वोट से वंचित हो सकते हैं। यह कोई मामूली बात नहीं है। चुनाव से ठीक कुछ महीने पहले इतनी बड़ी कवायद सिर्फ़ संदेह ही नहीं, बल्कि गहरी शंका भी पैदा करती है।
चुनाव आयोग एक संवैधानिक और स्वायत्त संस्था है। उसका पहला दायित्व है वोटिंग लिस्ट को अधिकतम समावेशी बनाना। मजदूर हों, भिखारी हों, माइग्रेंट वर्कर हों या सेक्स वर्कर, हर नागरिक को अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन आयोग का मौजूदा रवैया इसके उलट दिखता है। यहाँ तक कि विपक्षी दलों के नेताओं ने जब आयोग से मुलाकात करनी चाही, तो सिर्फ़ 30 लोगों को ही अनुमति दी गई और बाक़ियों को बैरिकेड से रोका गया। यह व्यवहार लोकतांत्रिक संस्थाओं के खुलेपन के खिलाफ है।
सबसे चौंकाने वाली बात है चुनावी डेटा को लेकर दोहरा रवैया। कांग्रेस ने इलेक्ट्रॉनिक डेटा मांगा ताकि वे यह साबित कर सकें कि वोटों की धांधली हुई है। लेकिन उन्हें यह डेटा नहीं दिया गया। वहीं, बीजेपी के नेता अनुराग ठाकुर को वही डेटा दो-तीन दिन में मिल गया। क्या यह आयोग की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठाता? एक ही संवैधानिक संस्था दो दलों के साथ दो अलग-अलग व्यवहार करे, तो उसकी साख पर गहरा धब्बा लगता है।
वोट चोरी – अब यह शब्द आम जनता के बीच लोकप्रिय हो चुका है। विपक्ष ने “मतदान अधिकार यात्रा” और “वोट चोरी से आज़ादी” जैसे अभियान शुरू कर दिए हैं। जनता भी अब समझने लगी है कि मताधिकार पर सीधा हमला हो रहा है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि – क्या चुनाव आयोग जानबूझकर गरीब, दलित, आदिवासी और हाशिए पर खड़े समुदायों को बाहर करना चाहता है? क्या यह लोकतंत्र को कमज़ोर करने की सोची-समझी रणनीति है? और क्या हम चुपचाप देखते रहेंगे कि करोड़ों लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जाए?
मतदान का अधिकार कोई सरकारी खैरात नहीं है जिसे शर्तों से बाँधा जाए। यह संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार जैसा लोकतांत्रिक अधिकार है। यदि 2 करोड़ लोगों को मताधिकार से बाहर किया जाता है, तो यह केवल चुनावी धांधली नहीं, बल्कि लोकतंत्र की हत्या होगी। आयोग को चाहिए कि वह अपनी भूमिका याद रखे – सबको शामिल करना, किसी को बाहर नहीं करना। आज ज़रूरत है जनता की सजगता की। अगर हम चुप रहे तो कल लोकतंत्र केवल कागज़ों पर रह जाएगा और वोट का अधिकार सत्ता के खेल का मोहरा बनकर रह जाएगा।
भारत का लोकतंत्र जिस नींव पर खड़ा है, उसका सबसे अहम आधार है – सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार। यह वह सिद्धांत है जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने संविधान में गहराई से गढ़ा। “एक व्यक्ति, एक वोट” – यही लोकतांत्रिक समानता का सबसे बड़ा मंत्र है। लेकिन आज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस नींव को खोखला करने की कोशिशें सुनियोजित ढंग से की जा रही हैं।
आज जब बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के नाम पर मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नाम काटने की कवायद चल रही है, तो यह संदेह गहरा हो जाता है कि कहीं चुनाव आयोग भी उसी विचारधारा के दबाव में तो काम नहीं कर रहा? आयोग ने 11 दस्तावेज़ अनिवार्य कर दिए। इससे गरीब, प्रवासी मजदूर, भूमिहीन किसान, दलित और उपेक्षित वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होंगे। आशंका है कि लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों लोग वोटिंग लिस्ट से बाहर हो जाएंगे। अगर ऐसा होता है तो यह वही सोच होगी जिसे संघ ने 1952 में व्यक्त किया था – मताधिकार को सीमित करो, लोकतंत्र को कमज़ोर करो।
यहाँ तर्क दिया जा रहा है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों और फर्जी नामों को हटाने की ज़रूरत है। लेकिन असल में सबसे पहले निशाना बनते हैं समाज के गरीब और हाशिए पर खड़े तबके। वही लोग जो कागज़ी दस्तावेज़ जुटाने में सबसे पीछे हैं। परिणाम यह कि वोट का अधिकार “सवर्ण और संपन्न वर्ग” के पास सिमट जाए, जिससे सत्ता पर काबिज़ पार्टी को स्थायी लाभ मिले। यह सीधा-सीधा भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ षड्यंत्र है।
आज जो आंदोलन बिहार और देश के अन्य हिस्सों में खड़े हो रहे हैं, वे सिर्फ़ एक तकनीकी प्रक्रिया के खिलाफ नहीं हैं। यह आवाज़ असल में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए उठ रही है। पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं ने इस पर गंभीर सवाल उठाए हैं। अजीत अंजुम जैसे पत्रकारों ने दिखाया कि किस तरह फॉर्म भरने और जाँच प्रक्रिया में धांधली हो रही है। जनता का आक्रोश इसलिए है क्योंकि यह सिर्फ़ कागज़ी नाम काटने का मामला नहीं, बल्कि नागरिक अधिकार छीनने का मामला है।
भारत की पहचान ही यही है कि यहाँ हर नागरिक – चाहे वह गरीब हो, निरक्षर हो, मजदूर हो, या महिला, सबको बराबर वोट का अधिकार है। यही हमें ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों से भी आगे ले गया, जहां महिलाओं को मतदान का अधिकार बाद में मिला। आज जब चुनाव आयोग, सरकार और कुछ विचारधाराएं इस अधिकार को सीमित करने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं, तो यह साफ है कि लड़ाई अब सिर्फ़ वोट की नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा की रक्षा की लड़ाई है। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया को तुरंत रोका जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि हर नागरिक, बिना किसी भेदभाव के वोट दे सकें। यही संविधान की सच्ची रक्षा होगी और यही हमारे लोकतंत्र की असली जीत।