संपादकीय
साल 1998 की बात है। महाराष्ट्र में उस समय शिवसेना-भाजपा की युति सरकार थी, और नारायण राणे राज्य के राजस्व मंत्री थे। पुणे के कोंढवा इलाके में तकरीबन 30 एकड़ ज़मीन का एक बड़ा सौदा होने जा रहा था, जिसमें तीन बिल्डर्स को शामिल किया गया था। यह जमीन वनविभाग की थी, लेकिन इस सौदे को कृषि भूमि के रूप में दर्शाकर आगे नॉन-अग्रिकल्चर के रूप में परिवर्तित किया गया, जिससे बिल्डर्स को लाभ मिले। इस पूरे सौदे में विभागीय आयुक्त, जिलाधिकारी और वनविभाग के अधिकारियों की भी सहमति शामिल थी। हालांकि, यह सौदा आगे चलकर विवादों में घिर गया।
इस प्रकरण की ओर एक बार फिर देश का ध्यान तब गया जब देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बने भूषण गवई ने बतौर सीजेआई अपने पहले ही निर्णय में इसी भूमि घोटाले से संबंधित मामला उठाया। यह केस वनविभाग की भूमि को पहले कृषि और फिर गैर-कृषि घोषित कर बिल्डर्स को हस्तांतरित करने की कोशिश का था।
कोंढवा की यह लगभग 30 एकड़ ज़मीन एक चव्हाण नामक व्यक्ति ने अपनी कृषि भूमि बताकर रजिस्टर कराई और दो करोड़ रुपये में ‘रिचरिच’ नामक सोसायटी को बेच दी। यह जमीन वास्तव में वनविभाग की थी, लेकिन कागजों में फेरबदल कर इसे कृषि भूमि और फिर गैर-कृषि भूमि में बदलने का खेल खेला गया। विभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, जिलाधिकारी विजय माथणकर और उपवनसंरक्षक अशोक खडसे की मंजूरी के बाद इस प्रक्रिया को अंजाम दिया गया। रिचरिच कंपनी में तीन साझेदार शामिल थे, सिटी ग्रुप के अनिरुद्ध देशपांडे, ऑक्सफर्ड प्रॉपर्टीज से जुड़े शेवलेकर, और तीसरे थे रहेजा बिल्डर्स। इन लोगों ने यहां पर बड़ी हाउसिंग स्कीम जैसे फ्लैट्स, रो हाउसेस, बंगले और रेजिडेंशियल पार्क बनाने का योजना बनाई थी।
जब इस जमीन सौदे की जानकारी पुणे के सामाजिक संगठन ‘सजग चेतना नागरी मंच’ को मिली, तो उन्होंने इस मामले को कोर्ट ले गये। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए 2002 में एक केंद्रीय सशक्त समिति (CEC) बनाई, जिसमें पी.वी. जयकृष्ण, जीवराजिका और एन.डी.एन. राव शामिल थे। इस समिति ने स्थल का निरीक्षण कर अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह सिफारिश की गई कि तत्कालीन राजस्व मंत्री नारायण राणे और संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए। हालांकि सरकार बदल चुकी थी, और राणे युति छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 2004 से 2014 के बीच जब महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की सरकार थी, नारायण राणे एक बार फिर राजस्व मंत्री बने।
बावजूद इसके, रिपोर्ट की सिफारिशों के बावजूद राणे के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। कार्रवाई केवल उपवनसंरक्षक अशोक खडसे पर हुई। इस पूरे प्रकरण की जांच में यह भी पाया गया कि पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड से छेड़छाड़ की गई थी। ब्रिटिश कालीन दस्तावेजों में आखिरी पृष्ठ को खाली छोड़कर उस पर नया मजमून छापा गया था, जिससे यह साबित किया जा सके कि जमीन का स्वामित्व रिचरिच सोसायटी को है।
2023 में इस मामले में फिर से गति आई। जब पुरातत्व विभाग ने वनविभाग के रिकॉर्ड पर संदेह जताया। मामला अब CBI को सौंपा गया है, जिसकी जांच 2024 में शुरू हुई। अभी तक CBI की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है।
सुप्रीम कोर्ट में CJI भूषण गवई द्वारा दिए गए 88 पृष्ठीय आदेश में इस मामले को “एक आदर्श उदाहरण बताया गया है कि कैसे नौकरशाह और राजनेता मिलकर जमीन हड़पने का षड्यंत्र रचते हैं।” उन्होंने कहा, “राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को चाहिए कि वे ऐसे सभी मामलों की समीक्षा करें, जहां वन विभाग की जमीन को राजस्व विभाग के रिकॉर्ड में बदला गया और बिल्डर्स को बेच दिया गया।”
उन्होंने यह निर्देश भी दिया कि जिन जमीनों पर अवैध रूप से निर्माण हुआ है, उन पर अब के बाजार मूल्य के अनुसार वसूली की जाए। साथ ही सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को विशेष टीम गठित कर एक वर्ष के भीतर ऐसे सभी मामलों की जांच पूरी करने के निर्देश दिए गए हैं।
यह मामला इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कैसे बिल्डरों, राजस्व विभाग और राजनेताओं के गठजोड़ से सरकारी जमीनें बेची जाती हैं, और आम जनता सिर्फ दर्शक बनकर रह जाती है।
उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के मुख्य न्यायाधीश के पद पर जस्टिस गवई अपना कार्यभार ग्रहण कर चुके हैं। वें भारत के 52वें सीजेआई (मुख्य न्यायधीश) हैं। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 साल है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल 13 मई को समाप्त हो चुका है। उन्होंने ही अगले सीजेआई के रूप में जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई (बीआर गवई) के नाम की सिफ़ारिश की थी।
जस्टिस बीआर गवई देश के दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश हैं। जस्टिस गवई से पहले जस्टिस केजी बालाकृष्णन 2007 में पहले दलित सीजेआई बने थे। जस्टिस बीआर गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ था और उन्होंने 1985 में अपने कानूनी करियर की शुरुआत की थी। उच्चतम न्यायालय की वरिष्ठता सूची में जस्टिस गवई का नाम सबसे ऊपर है इसलिए जस्टिस खन्ना ने उनका नाम आगे बढ़ाया है। जस्टिस गवई का कार्यकाल 23 नवंबर 2025 तक होगा। यानी वह इस पद से करीब सात महीने में ही रिटायर हो जाएंगे। महाराष्ट्र के अमरावती से आने वाले जस्टिस बीआर गवई 16 मार्च 1985 को बार में शामिल हुए थे।
वर्ष 1987 तक उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व एडवोकेट जनरल और जज राजा एस भोंसले के साथ काम किया। 1990 के बाद उन्होंने मुख्य रूप से संवैधानिक और प्रशासनिक कानून में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में प्रेक्टिस की। इस दौरान वह नागपुर नगर निगम, अमरावती नगर निगम और अमरावती विश्वविद्यालय के स्थायी वकील भी रहे। अगस्त 1992 से जुलाई 1993 तक गवई को बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ में सहायक सरकारी वकील और अतिरिक्त लोक अभियोजक नियुक्त किया गया। उन्हें 17 जनवरी 2000 से सरकारी वकील और लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया गया।
14 नवंबर 2003 को उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया। 12 नवंबर 2005 को जस्टिस बीआर गवई उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश बनाए गए। 24 मई 2019 को वह उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बनाए गए। जस्टिस बीआर गवई उच्चतम न्यायालय की कई संविधान पीठ का हिस्सा रहे। इस दौरान वह कई ऐतिहासिक फ़ैसलों का हिस्सा बने। वह पांच न्यायाधीशों की पीठ के सदस्य रहे जिसने सर्वसम्मति से केंद्र के 2019 के फैसले को बरकरार रखा। केंद्र ने अनुच्छेद 370 को निरस्त किया था जिसके तहत जम्मू और कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया था।
जस्टिस गवई पांच न्यायाधीशों की उस पीठ का भी हिस्सा रहे जिसने राजनीतिक फंडिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया था। जस्टिस गवई उस पीठ का भी हिस्सा थे जिसने एक के मुकाबले चार के बहुमत से केंद्र सरकार के 2016 के 1,000 रुपये और 500 रुपये के नोटों को बंद करने के फैसले को बरकरार रखा था। जस्टिस गवई सात न्यायाधीशों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा थे जिसने एक के मुक़ाबले छह के बहुमत से यह फैसला सुनाया था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है।
नवंबर 2024 में जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की पीठ ने आरोपियों की संपत्तियों पर बुलडोजर के इस्तेमाल की आलोचना की। इस मामले में उन्होंने फ़ैसला सुनाया कि उचित प्रकिया का पालन किए बिना किसी की भी संपत्तियों को ध्वस्त करना क़ानून के विपरीत है।
जब मामला राहुल गांधी पर आपराधिक मानहानि से जुड़ा हुआ सामने आया, तो 21 जुलाई 2023 को इस मामले में हो रही सुनवाई के दौरान पीठ ने गुजरात सरकार को नोटिस जारी कर दिया। इस मामले की जब सुनवाई हो रही थी तो जस्टिम गवई ने इस मामले से खुद को अलग करने की पेशकश की। उन्होंने कहा, “मेरी तरफ से इस मामले में थोड़ी समस्या है। मेरे पिता 40 सालों तक कांग्रेस से जुड़े थे। वह कांग्रेस के सदस्य नहीं थे लेकिन उनकी सहायता से राज्यसभा और लोकसभा पहुंचे थे। मेरा भाई भी कांग्रेस से जुड़ा हुआ है”। उन्होंने कहा कि अब आप सब तय करें कि क्या मुझे इस मामले की सुनवाई करनी चाहिए ? इस मामले में दोनों पक्षों की सहमति के बाद जस्टिस गवई ने जस्टिस पीके मिश्रा के साथ सुनवाई की।
जस्टिस बीआर गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के संस्थापक थे। वह साल 2006 से 2011 के बीच बिहार, सिक्किम और केरल के राज्यपाल भी रहे। गवई नागपुर की दीक्षाभूमि स्मारक समिति के चेयरमैन भी रहे थे।