संपादकीय
आज के समय में मिडिल क्लास की आर्थिक स्थिति पर जो रिपोर्ट्स सामने आ रही हैं, वे बेहद डराने वाली हैं। बताया जा रहा है कि पिछले दस वर्षों में इस वर्ग की आमदनी आधी हो चुकी है। यानी जो वर्ग कभी मस्जिद-मंदिर की बहसों में उलझा हुआ था, अब उसकी जेब खाली हो रही है और ये बात झलकने लगी है। लेकिन इस वर्ग को न तो अपनी गिरती आमदनी की फिक्र है, न ही इस पर कोई सामूहिक विमर्श।
बाजार की तस्वीरें सब बयान कर रही हैं। बिस्किट के पैकेट छोटे हो गए हैं, लेकिन कीमत वही है। मोटरबाइक और कार की बिक्री में भारी गिरावट आई है। हालात यह हैं कि मिडिल क्लास अब दोपहिया वाहन भी खरीदने की स्थिति में नहीं है। घर लौटते हुए पैदल चलना जैसे अब मजबूरी बनता जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट के संकेत साफ हैं कि भारतीय मिडिल क्लास अब सिर्फ ₹22,000 प्रति माह कमाता है। ऐसे में सवाल है कि क्या वह वर्ग, जो कभी हर बात पर अपनी राय रखता था, अब खुद को लेकर मौन क्यों हो गया है?
मिडिल क्लास की बचत दशकों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। लोग सोना गिरवी रखकर कर्ज ले रहे हैं, और फिर भी घर चलाना मुश्किल हो रहा है। लेकिन मिडिल क्लास की प्राथमिकताएं अब बदल चुकी हैं। वह अर्थशास्त्र के बजाय इतिहास के पीछे भाग रहा है। जो वर्ग कभी डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट पर बहस करता था, वो अब राजा-महाराजाओं के गुणगान में उलझा हुआ है।
आज का मिडिल क्लास इतिहास में खोया हुआ है। उसे यह सोचना होगा कि इतिहास की रक्षा करते-करते उसने वर्तमान को क्यों खो दिया? आज देश के सामने आर्थिक असमानता की बड़ी चुनौती है। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, जबकि गरीबों की क्रयशक्ति लगातार गिर रही है।
आज जब लोकतंत्र में सबसे अधिक जरूरत सजग और मुखर नागरिकों की है, तब भारत का मिडिल क्लास चुप है। क्या यह वर्ग अब सचमुच मृतक हो गया है? या फिर बस मूर्छित अवस्था में है, जिससे जागना अभी बाकी है?
भारत का वो वर्ग जो कभी अपनी सामाजिक जागरूकता, आर्थिक समझ और राजनीतिक सक्रियता के लिए जाना जाता था, आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ वह न तो अपनी स्थिति पर सवाल उठा रहा है और न ही अपने अधिकारों की सुरक्षा को लेकर चिंतित दिखता है। उसकी चुप्पी अब सिर्फ चुप्पी नहीं, एक मौन सहमति बन चुकी है। व्यवस्था की हर उस कार्रवाई के लिए जो कभी उसकी आज़ादी पर हमला करती है, कभी उसकी निजता पर।
सरकार लगातार ऐसे कानूनों को लागू करने की तैयारी में है, जो सीधे-सीधे निजता के अधिकार को प्रभावित करते हैं। आयकर कानून में प्रस्तावित संशोधन, जिसमें आयकर अधिकारी आपके फोन का डेटा, पासवर्ड और व्यक्तिगत जानकारी मांग सकते हैं, एक गंभीर चेतावनी है। यह सिर्फ कानून का विषय नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों के मूल स्वरूप को चुनौती देने वाला कदम है।
दिल्ली की एक अदालत ने नवंबर 2022 में स्पष्ट रूप से कहा था कि सीबीआई को किसी भी आरोपी से बिना सहमति के पासवर्ड लेने का अधिकार नहीं है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन है। बावजूद इसके, अब आयकर विभाग को यह अधिकार देने की तैयारी की जा रही है कि वह टैक्स चोरी के संदेह के आधार पर किसी का भी फोन, चैट, लोकेशन हिस्ट्री और यहां तक कि गूगल मैप डाटा खंगाल सके।
ऐसा नहीं है कि सरकार सिर्फ बड़ी पूंजीपतियों या टैक्स चोरों पर नजर रख रही है। मिडिल क्लास, जो हमेशा अपने टैक्स, ईएमआई और नियमों का पालन करता रहा है, अब संदेह की निगाह से देखा जा रहा है। उसे बताना होगा कि उसकी कौन-सी संपत्ति बेनामी है, वह कौन-सी चैट करता है, किससे संपर्क में है। लेकिन जो व्यवस्था यह सब मांग रही है, वह खुद कोई जानकारी सार्वजनिक करने को तैयार नहीं।
फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने 2022 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर यह चिंता जताई थी कि पुलिस बिना किसी स्पष्ट नियमन के लोगों के फोन जब्त करके उसका क्लोन बना लेती है और डेटा को तीसरी पार्टी से साझा कर सकती है। इससे सीधे-सीधे नागरिक की निजता का हनन होता है।
इसी तरह, व्हाट्सएप की निजी बातचीत के आधार पर गिरफ्तारी होना, बिना जांच-पड़ताल के मोबाइल डेटा को सबूत मान लेना, ये सभी कार्य न केवल असंवैधानिक हैं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध भी हैं।
आज जब सरकारें तकनीक की मदद से हर नागरिक की निगरानी में जुटी हैं, जब प्राइवेट डेटा सरकारी सर्विलांस का हिस्सा बन रहा है, तब मिडिल क्लास खामोश क्यों है? यह वही वर्ग है जो एक समय अपने हर अधिकार के लिए लड़ता था। क्या आज वह इतना संतुष्ट या भ्रमित है कि उसे अपनी ही आज़ादी की कीमत समझ नहीं आ रही ?
मिडिल क्लास को यह समझना होगा कि इतिहास की बहसें वर्तमान की समस्याओं से आँख मूंद लेने का विकल्प नहीं हो सकतीं। कानून अगर निजता और स्वतंत्रता को छीनने लगें, तो सबसे पहले आवाज उसी वर्ग से उठनी चाहिए, जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है।
यह सीधे-सीधे 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, जिसमें यह साफ कहा गया था कि किसी भी तरह की डिजिटल जाँच के लिए संवैधानिक सीमाओं का पालन अनिवार्य है।
सरकार दावा करती है कि वह बेनामी संपत्ति और काले धन के खिलाफ लड़ रही है, लेकिन असल में यह लड़ाई किसके खिलाफ हो रही है? जिन वादों के साथ सत्ता में आया गया था जैसे 15 लाख रुपये हर खाते में, या नोटबंदी के ज़रिए काला धन समाप्त करना उनमें से कोई भी पूरा नहीं हुआ।
इसी कड़ी में, इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे अपारदर्शी कानून लाए गए जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहरा दिया। इन तमाम प्रयासों में आरोपी कम और विरोधी ज़्यादा पकड़े गए।
विपक्षी नेताओं के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ED) की कार्रवाइयों के आँकड़े चौंकाने वाले हैं। पिछले 10 साल में ईडी ने 193 राजनेताओं पर केस दर्ज किए, लेकिन सिर्फ दो मामलों में सजा हुई। यानी ईडी का “स्ट्राइक रेट” महज़ 6.42% है, जो किसी भी खेल के 12वें खिलाड़ी से भी कम है।
2019 से 2024 के बीच ईडी ने 911 केस दर्ज किए, लेकिन केवल 42 में ही आरोप साबित हो सके। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार की एजेंसियाँ जांच कम, राजनीतिक प्रबंधन ज़्यादा कर रही हैं।
मिडिल क्लास, जिसने कभी राष्ट्रवाद का झंडा ऊँचा उठाया, आज आर्थिक शोषण और राजनीतिक धोखाधड़ी का सबसे बड़ा शिकार बन गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में डिग्रीधारी युवाओं को भी बहुत कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है। भारत उन सात देशों में है जहाँ कम मजदूरी देने की दर सबसे ज़्यादा है।
इसका नतीजा यह है कि मिडिल क्लास की आमदनी में राष्ट्रीय हिस्सेदारी 1820 के स्तर पर पहुँच गई है, यानी दो सदियों पीछे। भारत की प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 700 डॉलर है और 190 देशों में भारत का स्थान 142वाँ है। हमें समझना होगा कि जब सरकार चारों तरफ से उसे घेर लेगी, तो न हम सवाल कर पाएंगे, न तरक्की कर पाएंगे।
भारत के मध्य वर्ग की कहानी एक ऐसे वर्ग की कहानी बन गई है, जिसने विश्वगुरु के सपने देखे, लेकिन हकीकत में उसे टैक्स गुरु बना दिया गया। न तो उसकी आमदनी बढ़ी, न जीवन की गुणवत्ता, और अब उसके सपने भी बाज़ार की तरह सिकुड़ते जा रहे हैं।
मार्सल इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स के सौरभ मुखर्जी के अनुसार, पिछले एक दशक में भारत के मिडिल क्लास की आमदनी आधी हो चुकी है। ऑटोमेशन, नौकरियों की कमी और ठहरती अर्थव्यवस्था ने उसे ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जहाँ वित्तीय सुरक्षा सिर्फ एक भ्रम बनकर रह गई है।
मिडिल क्लास का राष्ट्रीय आमदनी में योगदान आज 1820 के स्तर तक गिर चुका है। ये वही वर्ग है जिसने कभी राजनीति को दिशा दी थी, पर आज राजनीति ने उसे उलझा दिया है, गौरक्षा, राष्ट्रवाद, और एंटी-नेशनल जैसे जुमलों में। अनिंद्य चक्रवर्ती का विश्लेषण कहता है कि 1990 के दशक में मिडिल क्लास की आय 2% वार्षिक दर से बढ़ रही थी। 2003 से 2013 के बीच यह बढ़ोतरी 7% से अधिक थी। लेकिन 2013 से 2023 तक यह फिर गिरकर 2% से भी कम हो गई। इसका मतलब ये है कि आज का मिडिल क्लास पिछले दशक की तुलना में आधे संसाधनों में जी रहा है, जबकि महंगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है।
अब जब देश की अर्थव्यवस्था ढलान पर है, नौकरियाँ जा रही हैं, और आय घट रही है, तब क्या मिडिल क्लास सिर्फ सिनेमा देखता रहेगा? अब वक्त आ गया है कि मिडिल क्लास सिर्फ टैक्स भरने वाली चुप जनता न रहे, बल्कि सवाल पूछे। जब तक मिडिल क्लास खुद के लिए नहीं बोलेगा, कोई और उसकी आवाज़ नहीं बनेगा।