जब बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं, तो भारत कैसे बनेगा “वैश्विक ज्ञान की महाशक्ति” ?

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संपादकीय

आज महाराष्ट्र के अधिकांश के स्कूली छात्रों को सही ढंग से मराठी पढ़ना और लिखना नहीं आता, यह एक कड़वी सच्चाई है। अगर हम बीते 10-12 वर्षों में शिक्षा क्षेत्र की स्थिति पर नज़र डालें, तो साफ दिखता है कि हम कई स्तरों पर भटक गए हैं। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में हालात बद से बदतर हैं। शालाएं तो हैं, लेकिन रंग-रोगन नहीं, ब्लैकबोर्ड हैं, लेकिन बेंच नहीं, चॉक हैं, लेकिन लाइट नहीं, लाइट हैं, लेकिन पंखे नहीं। और अगर यह सब मौजूद हो भी, तो छात्र नहीं मिलते, और अगर छात्र हैं, तो शिक्षक गायब रहते हैं। ऐसे में शिक्षा की वैश्विक रैंकिंग या 21वीं सदी की नई शिक्षा नीति लागू करने की बातें तो दूर की कौड़ी लगती हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 का उद्देश्य भारतीय शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव लाना और भारत को “वैश्विक ज्ञान महाशक्ति” बनाना है। हालांकि, नीति की तमाम बातें अभी सिर्फ कागजों पर हैं। योजनाएं आकर्षक भाषा में लिखने और बड़े-बड़े वादे करने से कुछ नहीं होगा, असली चुनौती तो इन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने की है।

NEP 2020 में शिक्षा के डिजिटलीकरण पर जोर दिया गया है, लेकिन भारत के कई ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी और तकनीकी सुविधाओं का अभाव है, जिससे डिजिटल शिक्षा की उपलब्धता में असमानता बढ़ सकती है। नीति में कहा गया है कि कम से कम 5वीं कक्षा तक मातृभाषा में पढ़ाई होनी चाहिए, लेकिन आगे चलकर उच्च शिक्षा में यह छात्रों के लिए बाधा बन सकती है। मातृभाषा में पूरी स्कूली शिक्षा मिलने से बच्चे उसे लेकर गर्व तो महसूस करेंगे, लेकिन जब उन्हें अंग्रेज़ी में उच्च शिक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, तब क्या होगा?

आज तकनीक इतनी विकसित हो चुकी है कि मोबाइल भी भाषाओं का अनुवाद कर सकता है, लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि मातृभाषा को ज्ञान की भाषा के रूप में अपनाने पर जोर तो दिया जाता है, लेकिन 5वीं के बाद उसे छोड़ दिया जाता है। इसी का नतीजा है कि आज महाराष्ट्र के छात्रों को ढंग से मराठी पढ़नी और लिखनी नहीं आती। NEP की सफलता इसकी प्रभावी लागू करने की क्षमता पर निर्भर करेगी। लेकिन क्या नीति-निर्माताओं को पर्याप्त शिक्षकों की कमी, संसाधनों की अनुपलब्धता और निगरानी तंत्र की खामियों का एहसास है? महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने समितियां तो बनाई हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय और स्पष्ट दिशा-निर्देशों की अभी भी कमी है।

व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, लेकिन यह तब कैसे संभव होगा जब खुद कौशल विकास मंत्रालय को शुरुआती वर्षों में एक सक्षम मंत्री ही नहीं मिला? ऐसे में वहां से कोई कारगर नीति निकलने की उम्मीद करना बेकार है।

आज भी समाज में व्यावसायिक शिक्षा को पारंपरिक उच्च शिक्षा से कमतर माना जाता है। उदाहरण के तौर पर, क्या कोहिनूर टेक्निकल इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा करने वाला छात्र किसी बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनी में ऊंचे पद पर नौकरी पा सकता है? अगर जवाब “नहीं” है, तो यह दिखाता है कि हमारी शिक्षा नीति में कितनी असमानताएं हैं।

इसके अलावा, नीति का लक्ष्य शिक्षा में समावेशिता बढ़ाना है, लेकिन हकीकत यह है कि हाशिए पर मौजूद तबकों तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करने में अभी भी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। जहां छात्राएं मुफ्त शिक्षा और यात्रा जैसी सुविधाओं का लाभ उठाकर आगे बढ़ रही हैं, वहीं कुछ नेता धार्मिक पोशाक पहनने को लेकर ही बहस में उलझे रहते हैं। यह वही लोग हैं, जो चुनाव जीतकर सत्ता में आते हैं और फिर शिक्षा नीति को ही भूल जाते हैं।

NEP 2020 परीक्षा प्रणाली को व्यापक मूल्यांकन में बदलने की बात करती है, लेकिन इसके लिए मौजूदा प्रणाली में बड़े सुधारों की जरूरत होगी, जिसमें शिक्षकों को नई प्रणाली के लिए प्रशिक्षित करना और उनकी मानसिकता बदलना सबसे बड़ी चुनौती होगी। अगर यह बदलाव सही तरीके से नहीं किया गया, तो NEP 2020 महज एक कागजी योजना बनकर रह जाएगी।

NEP 2020 के लागू करने के लिए विभिन्न समितियों और उपसमितियों के गठन का जिक्र किया गया है। भाजपा के ही वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी की मशहूर टिप्पणी है कि “अगर इच्छा हो, तो रास्ता निकलता है। अगर इच्छा न हो, तो सिर्फ सर्वे, कमेटी, सब-कमेटी और स्टडी ग्रुप्स बनते रहते हैं।” भाजपा की शिक्षा नीति को देखकर यही सच प्रतीत होता है।

नीति में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों की छात्राओं को शिक्षा उपलब्ध कराने की बात तो कही गई है, लेकिन वास्तविकता में प्रवेश और समान अवसरों की समस्या बनी हुई है। NEP 2020 ने गुणवत्ता सुधारने के लिए मूल्यांकन प्रणाली (जैसे NAAC) का जिक्र किया है, लेकिन यह सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया बनकर न रह जाए, इस पर ध्यान देना ज़रूरी है। इसके अलावा, क्या इस नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए पर्याप्त संसाधन और बजट उपलब्ध होगा? नए पाठ्यक्रम और मानकों को लागू करने के लिए शिक्षकों को किस तरह प्रशिक्षित किया जाएगा? बिना उचित व्यावसायिक विकास के, यह नीति पूरी तरह असफल भी हो सकती है।

शिक्षा में तकनीक के महत्व को स्वीकार किया गया है, लेकिन इसे भारत के हर हिस्से में समान रूप से लागू करना संभव नहीं दिखता। जब बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं, तो तकनीक आधारित शिक्षा की बातें खोखली लगती हैं। अगर मूल्यांकन की कोई ठोस रूपरेखा नहीं बनी, तो सुधार सतही ही रह जाएंगे।

सरकारी योजनाओं को लागू करवाने के लिए अफसरों को जवाबदेह बनाना जरूरी होता है, लेकिन अगर वे अपने मनमुताबिक काम करें, तो शासन सुचारू रूप से चल सकता है। इस संदर्भ में उद्धव ठाकरे का उदाहरण लिया जा सकता है, कोरोना काल में उनके नेतृत्व में लागू किया गया “मुंबई मॉडल” पूरे देश और दुनिया में सराहा गया था।

इसके विपरीत, भाजपा सरकार टालियां और थालियां बजवाने में व्यस्त रही, लेकिन जब गरीबों के लिए चलाई गई शिवभोजन थाली को बंद करने की बारी आई, तो उसे बिना सोचे-समझे बंद कर दिया गया। आज भाजपा सत्ता में तो है, लेकिन प्रशासनिक रूप से पूरी तरह विफल नजर आती है।

सत्ता का असली उद्देश्य जनकल्याण होता है, लेकिन अगर सत्ता में बैठकर केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को हराने की चालें चली जाएं, तो शिक्षा नीति जैसी महत्वपूर्ण चीज़ें उपेक्षित रह जाती हैं। जब तक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक समितियां और उपसमितियां बनती रहेंगी, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कुछ नहीं बदलेगा। भारत को शिक्षा के क्षेत्र में महाशक्ति बनाने का सपना तभी साकार होगा, जब इन बुनियादी समस्याओं को प्राथमिकता दी जाएगी।