अर्थव्यवस्था गिर रही और 3 बच्चे पैदा करना है!

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देश की जनसंख्या नीति 1998-2002 में तय की गई थी। इसके मुताबिक जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 से नीचे नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा होता है, तो समाज अपने आप नष्ट हो जाएगा। अब कोई इंसान 0.1 पैदा तो नहीं होता… इसलिए यह कम से कम तीन होना चाहिए।

RSS चीफ मोहन भागवत ने कहा, ‘कुटुंब समाज का हिस्सा है और हर परिवार एक इकाई है।’

तीन बच्चे पैदा करने का सुझाव, खासकर भारत की मौजूदा आर्थिक स्थिति में, असामान्य लगता है। हाल ही में, भारत की दूसरी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5.4% तक गिर गई है। यह गिरावट सवाल खड़े करती है कि क्या देश की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत हो गई है कि लोग तीन बच्चों की परवरिश कर सकें ?

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हर परिवार को तीन बच्चे पैदा करने का सुझाव दिया। हालांकि, इस वक्त देश की आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह असंभव लगता है। मिडिल क्लास परिवारों पर पहले से ही बच्चों की शिक्षा और जीवन-यापन का भारी खर्च है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में प्राइवेट स्कूलों की फीस तीन गुना बढ़ चुकी है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इन अतिरिक्त बच्चों का खर्च कौन उठाएगा—सरकार या संघ?

आर्थिक स्थिति और जीडीपी का हाल

भारत की अर्थव्यवस्था धीमी गति से चल रही है। दूसरी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5.4% रही, जो पिछले साल की समान अवधि (8.1%) से काफी कम है। इसका मतलब है कि विकास दर में 2.7% की गिरावट आई है। कई आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारी आंकड़े वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाते। रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए गए अनुमान भी गलत साबित हो रहे हैं। जैसे, रिजर्व बैंक ने 7% जीडीपी वृद्धि का अनुमान लगाया था, लेकिन वास्तविक आंकड़ा 5.4% निकला। इससे यह सवाल उठता है कि रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर कितना भरोसा किया जा सकता है।

आम जनता की स्थिति

आम जनता की आर्थिक स्थिति खराब है। मिडिल क्लास पर आर्थिक दबाव इतना बढ़ गया है कि लोग सोना और गहने गिरवी रखकर लोन लेने को मजबूर हैं। पिछले कुछ समय में 56% की वृद्धि “गोल्ड लोन” में दर्ज की गई है। लोग अपनी आय से अधिक खर्च कर रहे हैं और महंगाई उनकी कमाई को तेजी से खा रही है। कंपनियों की हालत भी चिंताजनक है। सीमेंट और पेंट जैसी बड़ी कंपनियों के मुनाफे में भारी गिरावट आई है। एशियन पेंट्स जैसी कंपनियों ने कहा है कि बाजार में मांग कम हो गई है। इसका मतलब है कि लोग अब जरूरत की चीजें भी कम खरीद रहे हैं।

गुलाबी आंकड़े और जमीनी सच्चाई

सरकार के जीडीपी और जीएसटी संग्रह के आंकड़े अक्सर “गुलाबी तस्वीर” दिखाते हैं। जैसे, नवंबर में जीएसटी संग्रह ₹1.82 लाख करोड़ बताया गया, लेकिन इसका वास्तविक विश्लेषण दिखाता है कि रिफंड के कारण यह वृद्धि सतही है। हिंदी मीडिया में इन आंकड़ों को बिना सवाल उठाए पेश किया जाता है, जबकि अंग्रेजी मीडिया में विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण दिखता है।

आगे की राह

भारत की अर्थव्यवस्था में ठहराव के संकेत स्पष्ट हैं। सरकार को इसे स्वीकार कर, जनता को सच्चाई बतानी चाहिए। केवल सकारात्मक आंकड़े दिखाकर समस्या को छिपाने से समाधान नहीं होगा। हमें अपनी आर्थिक नीतियों और व्यवस्था पर गंभीरता से काम करना होगा, ताकि जीडीपी और आम नागरिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।

मौलिक जरूरतों पर ध्यान दें

जीडीपी की धीमी गति, बढ़ती महंगाई, और घटती आमदनी के बीच तीन बच्चे पैदा करने का सुझाव व्यावहारिक नहीं लगता। यह वक्त आर्थिक स्थिरता लाने और नागरिकों की मौलिक जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देने का है।