संपादकीय
मौजूदा राजनीति को देखकर लगता है कि यह समाज में दरारें पैदा करने वाली है। यह गंदी राजनीति की ओर इशारा करती है। जब नेतागण जनता के सामने भाषण देते हैं, तो वे कहते हैं कि 80 प्रतिशत समाजसेवा और 20 प्रतिशत राजनीति करते हैं। लेकिन असल में यह अनुपात ठीक उल्टा होता है। ये लोग 80-90 प्रतिशत राजनीति करते हैं और केवल 15-20 प्रतिशत समाजसेवा। एक बार जब इन्हें वोट मिल जाते हैं, तो इनकी समाजसेवा खत्म हो जाती है और राजनीति शुरू होती है। जब चुनाव नजदीक आते हैं, तो वादों और सबसिडी वाली योजनाओं की बौछार होती हैं। सरकार के पास पैसा हो या न हो, तिजोरी खोल दी जाती है। यह मुफ्त, वह माफ, ऐसी लालचें दी जाती हैं।
असल में, युवा पीढ़ी या महिलाएं, किसी को भी मुफ्त का कुछ नहीं चाहिए। हर कोई स्वाभिमान के साथ जीना चाहता है, मेहनत करना चाहता है। उन्हें उनकी योग्यतानुसार काम चाहिए। यह खालीपन ही है जो इन नेताओं को परेशान करता है। जो मोर्चे और आंदोलन हम देखते हैं, वह बेरोजगारी से उपजे निराशा का परिणाम है। अगर लोगों के पास काम होगा, मेहनत से वे अपनी जरूरतें पूरी कर सकेंगे, तो वे मुफ्त का कुछ नहीं मांगेंगे। लेकिन नेताओं को यह नहीं चाहिए। उन्हें असंतोषजनक, आंदोलनकारी समाज चाहिए। उन्हें खाली युवा वर्ग चाहिए, ताकि वे उनके चारों ओर भीड़ इकट्ठा कर सकें, मोर्चे निकाल सकें और नारे लगा सकें।
आज की राजनीति जाति और धर्म में बंटी हुई है, जो द्वेष को बढ़ावा देती है और समाज में दरारें पैदा करती है। हर नेता को अपनी जेब भरनी है। गांधीजी कहते थे कि हमें हमारी जरूरतों के लिए भगवान ने पर्याप्त दिया है। लेकिन हमारी लोभी, लालची प्रवृत्ति के कारण प्रकृति बेबस हो गई है। यदि हम आज की परिस्थिति देखें, तो क्या चित्र दिखाई देता है? न्याय, नीति का नाम नहीं है। कोई निष्ठा नहीं है। ईमानदारी नहीं है। पार्टी की नीति एक खेल बन गई है। कौनसा नेता कब किस पार्टी में जाएगा, यह कहना मुश्किल है। जो टिकट देगा, पद देगा, मलाई देगा, वही उनका पार्टी है। जैसे गिरगिट रंग बदलता है, वैसे ही ये नेता ऐन चुनावों के समय भी रंग बदलते हैं। यह आयाराम-गयाराम का गंदा नाटक देखकर लोग सचमुच परेशान हो गए हैं। राष्ट्रप्रेम, गरीबों के प्रति संवेदना कहीं नहीं है। जो दिखाई देता है, वह है स्वार्थी, खुदगर्जी, भ्रष्टाचार और सरकारी खजाने को, गरीबों के हक को लूटने वाली डाकाजनी!
अजीब है कि हम सब कुछ सहन करते हैं। हमारे हाथ में संविधान द्वारा दिए गए अधिकार और स्वतंत्रता होने के बावजूद हम इस राजनीतिक गंदगी को सहन करते हैं। क्या हमारे पास कोई विकल्प नहीं है? या विकल्प होते हुए भी हम हताश हैं? दुनिया का सबसे सुंदर संविधान, मजबूत लोकतंत्र, कानून का राज होने के बावजूद यह कीचड़ हमारे चारों ओर कैसे आया, कब आया, इस पर विचार करने का समय आ गया है।
वर्तमान में महाराष्ट्र सरकार की ओर से लाड़ली बहन योजना चलाकर प्रदेश की करोड़ों बहनों के खातों में 1500 रुपये के हिसाब से सहायता राशि दी जा रही है। परंतु इसके विपरीत हम क्या देख रहे हैं ? 5 माह पूर्व खाद्यतेल का दाम 100 रुपये प्रति लीटर था, अब यह 140 तक पहुंच गया। इसी तरह तुअर दाल 130 से 170 पर, मूंग दाल 105 से 120 पर, चना दाल 70 से 105 पर, प्याज 25 से 70 पर, आलू 25 से 70 पर तथा मैदा 35 से 50 रुपये के पार हो गया। लाड़ली बहन योजना से खुश हुई बहनें अब महंगाई पर रुठने लगी है। खाद्य तेल से लेकर किराना की सामग्री, सब्जियों से लेकर दवाओं तक के दाम आसमान छूं रहे हैं।
त्योहारों के इस मौसम में लाड़ली बहनों के किचन का बजट बिगाड़ दिया गया है। सरकार का किसी भी प्रकार से महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं है। घरेलू हर वस्तुओं के दामों में बेतहाशा वृद्धि कर दी गई है। मौसम में बदलाव से संक्रामक बीमारियां बढ़ रही है। लेकिन इलाज महंगा हो गया है। दवाओं के दाम भी बढ़ा दिये गये है। गरीब और बीमार व्यक्तियों को अपना इलाज करवाना मुश्किल हो गया है। गणेशोत्सव के बाद माता उत्सव की धूम में बाजार को महंगाई ने निगल लिया है। उधर, अनाज उगाने वाला किसान भी परेशान है। क्योंकि इतनी महंगी वस्तुओं के दामों का लाभ किसानों को नहीं मिल पा रहा है। बिचौलिये और दलालों के अलावा जमाखोरी करने वाले ही मालामाल हो रहे हैं। सरकार का इस पर कोई नियंत्रण नहीं है। जबकि अनाज उगाने वाले किसानों को खाद और कीटकनाशक भी महंगे दामों पर ही खरीदना पड़ रहा है। आखिरकार यह मुनाफा अंतत: किसकी जेब में जा रहा है ? इस सवाल का जवाब सरकार को देना ही चाहिये।
एक ओर महाराष्ट्र की बहनों को लाड़ली योजना के माध्यम से 1500 रुपये देना, और दूसरी ओर से किराना, खाद्यतेल, सब्जियों आदि सभी वस्तुओं के दाम बढ़ा देना, इससे उन करोड़ों बहनों को आखिरकार क्या लाभ मिला ? शायद इन महिलाओं ने सोचा था कि सरकार से मिली यह धनराशि त्योहारों के समय में कुछ न कुछ खरीदारी के काम आ जाएगी। लेकिन जब किचन का तड़का ही महंगा कर दिया गया हो तो सबसे पहले महिलाएं अपने घर के जरूरत की चीजों को ही खरीदना पसंद करेगी। ऐसे में जब यह महिलाएं किराना और अन्य वस्तुओं को खरीदने बाजार में पहुंच रही है तो इन बढ़े हुए दामों को देखकर सरकार की नीतियों के खिलाफ गुस्सा निर्माण होना स्वाभाविक ही है। इसलिए अब लगातार सवाल यह उठ रहा है कि लाड़ली बहना अपने किचन का बजट कैसे ठीक कर पाएगी। क्या सरकार की ओर से दी जा रही राशि महंगाई भत्ते के रूप में इन महिलाओं के काम आएगी ? या इसे महंगाई के साथ मिले सौगात के रूप में देखा जाएगा।