बदला पुरा : ढह रहा कोर्ट का फांसी कानून, अब सरकारें स्वयं आरोपियों को देगी मौत ?

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Revenge taken: The court’s death penalty law is crumbling,Will the governments themselves give death penalty to the accused?

संपादकीय :- बदलापुर अत्याचार मामले के आरोपी अक्षय शिंदे की मौत पर किसी को रत्तिभर भी दु:ख नहीं, लेकिन न्यायीक प्रक्रिया के ढहते लोकतंत्र के ढांचे में जो दरारें आने लगी हैं, वह दरारें कोर्ट व कानून पर अविश्वास को मजबूती प्रदान करते हैं। मुंबई में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के रिवॉल्वर थामे पोस्टर लगे हैं। इस पोस्टर में बदला पुरा शब्द लिखा गया है। अर्थात किसी भी अपराध के दोषी या आरोपी को सजा अब कोर्ट दें या न दें, अब सरकारें खुद ही आरोपी को मौत की सजा देकर बदला पुरा करने की घोषणा आसानी से कर सकती है। मतलब साथ है कि अब जघन्य मामलों के आरोपियों को कोर्ट की फांसी की सजा के बजाय सरकार की गोलियों से भूनने का चलन भारतीय लोकतंत्र का नया चेहरा बनकर उभर रहा है। इस तरह के एनकाउंटर देश में पहली बार नहीं हुए हैं। हर एनकाउंटर के बाद कोर्ट सख्त टिपणी करता है। फिर जांच बैठती है। फिर रिपोर्ट आ जाती है। और अनेक एनकाउंटर में फेक की मुहर लगते ही बंदूकधारियों को सलाखों के पीछे भेज दिया जाता है। परंतु सवाल यह है कि इन बंदूकधारियों को फेक एनकाउंटर करने के निर्देश देने वाले और एनकाउंटर के बाद उसका श्रेय व लाभ बटोरने वालों पर कोर्ट द्वारा कसूरवार नहीं ठहराये जाने से बंदूर के पीछे के हाथ सही सलामत बच जाते हैं।

बदलापुर के आरोपी की मृत्यु पर दु:ख जताने वाला कोई नहीं मिलेगा। परंतु आरोपी को कोर्ट से फांसी की सजा देने के पूर्व ही उसे मौत की शैया पर सुला देना लोकतंत्र व्यवस्था में छेद कर रहा है। कोई निर्दोष भी कभी किसी सरकार की गोली का शिकार बन सकता है। लोकतंत्र में हर आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका कोर्ट देती है। परंतु यहां सरकारें यदि एनकाउंटर के नाम पर कोर्ट का फैसला खुद ही करने लगे तो आरोपी को मिला उसका मौलिक अधिकार और न्याय की प्रक्रिया छिन जाएगी। चिंता और दु:ख इस बात का है कि कोर्ट को अपना काम करने से रोका जाना, लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है। इस प्रकार की घटनाएं यह दर्शाती हैं कि सत्ताधारी यह मानते हैं कि वे कानून के शासन को प्रभावी ढंग से लागू करने में असमर्थ हैं।

हाल ही में बदलापूर प्रकरण में आरोपी अक्षय शिंदे की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गई। यह मुठभेड़ एक ऐसे संदर्भ में हुई, जहां आरोपी और अपराधी के बीच कानून की सीमाएं लांघ दी गईं। न्यायालय द्वारा दी जाने वाली सजा उचित होती है, जबकि प्रशासन की ओर से की गई कार्रवाई एक हत्या बन जाती है। इस हत्या पर कोई गंभीर चर्चा नहीं होती, सिवाय अक्षय शिंदे के परिवार के। यह मुठभेड़ तब हुई जब देश के गृहमंत्री महाराष्ट्र दौरे पर आने वाले थे, क्या यह एक संयोग मात्र था ? 12 घंटों के भीतर जिस प्रकरण में कोई अपराध ही दर्ज नहीं किया गया, उसमें मुठभेड़ का होना निश्चित रूप से संयोग से अधिक कुछ है। इसके बावजूद, आंदोलकों और विपक्षी दलों को यह सलाह दी गई कि वे इस मामले में राजनीति न करें, जैसे कि राजनीति केवल सत्ताधारियों का एक विशेषाधिकार हो।

यहां पर कई सवाल उठते हैं। क्या यह राज्य का कानून है या सत्ताधीशों का? क्या यह सजा है या हत्या? क्या यह मुठभेड़ है या राजनीति? हाल ही में लागू किए गए नए कानूनों के संदर्भ में यह घटना एक गंभीर मुद्दा बन गई है। 1 जुलाई से लागू किए गए नए कानूनों में इतना दम नहीं है कि वे अपराधियों को सजा दिला सकें। हालांकि, नए कानूनों के लागू होने से अपराध समाप्त नहीं होंगे। अपराध का यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा, चाहे वह अपराधी हो या सत्ताधारी।

जब जनता में असंतोष उत्पन्न होता है, तो सत्ताधीश अपने ही आरोपों को दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वे खुद इस मुठभेड़ का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं। तेलंगाना के दिशा सामूहिक बलात्कार मामले के बाद की मुठभेड़ में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे फर्जी एनकाउंटर करार दिया था। और एक समिति बनाई थी। इस समिति ने पुलिस कर्मियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने की सिफारिश की थी। यह स्पष्ट है कि सत्ताधीशों के मौखिक आदेशों के आधार पर पुलिस कार्यवाही करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

इस प्रकरण में भी एक समिति के निष्कर्ष आने की संभावना है, लेकिन क्या यह घटनाएं कानून के राज को दिखाती हैं या सत्ताधीशों की दहशत को? इस तरह की घटनाएं तात्कालिक लोकप्रियता तो दिला सकती हैं, लेकिन यह सत्ताधीशों की इस स्वीकार्यता को दर्शाती हैं कि वे कानून का शासन स्थापित करने में असमर्थ हैं।

बदलापुर प्रकरण में अपराध दर्ज करने में देरी और स्कूल में उपलब्ध सीसीटीवी फुटेज का न मिलना जैसी गंभीर चूकें अब किसी को याद नहीं रहेंगी। अक्षय शिंदे, जिसे आसानी से पुलिस द्वारा पकड़ा गया था, वह अचानक भागने के लिए प्रेरित कैसे हुआ? उसे बंदूक चलाने का प्रशिक्षण कैसे मिला? ऐसे कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। बदलापुर मामले में आरोपों में घिरे संस्था चालक अभी भी गिरफ्तार नहीं हुए हैं। क्या ये आरोपी संस्थाचालक भविष्य में अपराधी साबित होंगे? मुख्य आरोपी शिंदे को तुरंत गिरफ्तार किया गया, लेकिन संस्थाचालकों को क्यों नहीं? यह जांच में एक बड़ा विरोधाभास है।

पुलिस मुठभेड़ कहीं भी हो सकती है, लेकिन उसे वैधता मिलनी चाहिए। जब एक आरोपी, जो पुलिस की गिरफ्त में है, पुलिस से बंदूक छीनकर उन पर फायर करता है, तो यह सरकार की विफलता को दर्शाता है। मुठभेड़ के बारे में सवाल उठाने पर, सत्ताधीश विरोधियों को उनकी मांगों की याद दिलाने का प्रयास करते हैं। सरकार का यह प्रयास कि वह अपने अपराधों पर पर्दा डाल सके, हास्यास्पद और दयनीय है।

राज्य सरकार द्वारा नियुक्त समिति के निष्कर्ष क्या होंगे, यह देखना बाकी है। अगर चुनाव न होते तो बदलापुर मामले में अदालत शायद सही न्याय देती। इस प्रकरण में सजा का श्रेय अदालत को न मिले, इस महत्त्वाकांक्षा से ही यह मुठभेड़ हुई है। हालांकि, यह भी सवाल उठता है कि सत्ताधीशों को अपने ही कानून पर अविश्वास क्यों करना पड़ा। इस सब में पुलिसों का दोष निकालना उचित नहीं है। ऐसे मामले पुलिस और राजनीतिकों के बीच की घनिष्ठता को और मजबूत करते हैं।

आखिरकार, आरोपी की मृत्यु का दुःख नहीं है, बल्कि न्याय प्रणाली की प्रकृति की चिंता निश्चित रूप से बढ़ती है।