One Nation, One Election will bring tension of Rs 928 crores to the public
भारतीय जनता के माथे पर वन नेशन, वन इलेक्शन थोपने की संपूर्ण तैयारी केंद्र सरकार कर रही है। लेकिन इससे होने वाले नतीजों को लेकर फिलहाल कोई खुलकर बात नहीं कर रहा है। यदि भविष्य में एकसाथ चुनाव करवाने की नौबत आयी तो सरकार को काफी धन खर्च करना पड़ेगा। यह केवल धन की कमी का मसला नहीं बनेगा, बल्कि उपचुनावों की नीतियों में बदलाव करना संवैधानिक अधिकारों के हनन की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा होगा। यदि हम केवल आर्थिक पहुलाओं पर भी गौर करें तो हमें यह ज्ञात होता है कि वन नेशन, वन इलेक्शन के सरकार के सपने को साकार करने के लिए चुनाव आयोग को एकसाथ बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल मशीनें भी बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराना होगा। चुनावा आयोग के अनुमान के अनुसार इसके लिए सरकार को 9284 करोड़ 15 लाख रुपये खर्च करने पड़ेंगे। और हर 15 वर्ष बाद इन मशीनों को बदलना भी होगा, अर्थात पुन: हजारों करोड़ रुपये इसके लिए खर्च करने की नौबत आएगी। साथ ही इसके रखरखाव, सुधार और भंडारण के लिए उपयुक्त संसाधन भी मुहैया कराने होंगे।
सरकार दावा करती है कि यदि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो विकास कार्य प्रभावित नहीं होंगे। आर्थिक बोझ कम होगा। परंतु विपक्षी दलों का दावा है कि एक साथ चुनाव करवाने पर संघीय ढांचे को क्षति पहुंचेगी। इसके चलते एक राजनीतिक दल की सत्ता को मजबूती मिलेगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने फिर एक बार वन नेशन, वन इलेक्शन का मुद्दा पटल पर ला दिया है। देश भर में एकसाथ चुनाव कराने के विचार पर अब अमल करने की दिशा में कदम उठाया जा रहा है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक देश, एक चुनाव का फैसला किया, परंतु इसके लिए संविधान में बदलाव करने की आवश्यकता पड़ेगी। मोदी सरकार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी। क्योंकि यहां एक साथ चुनाव कराने से ज्यादा राजनीतिक फायदा उठाने की आशंका अधिक है।
ज्ञात हो कि वर्ष 1952 से 1967 तक भारत में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुआ करते थे। वर्ष 1959 में केरल में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। इसके बाद एक साथ चुनावों का सिलसिला खत्म हो गया। वर्ष 1967 में कांग्रेस की केंद्र में सरकार थी। किंतु 9 राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं रही। इनमें से कुछ तो अल्पावधि में ही गिर गई और एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया समाप्त हो गई। वर्ष 1971 में लोकसभा चुनाव के समय सभी राज्यों की विधानसभा चुनाव एक साथ नहीं हो सकें। इस इतिहास को ध्यान में रखने पर ज्ञात होगा कि जिस राज्य में सरकार अल्पमत में आकर गिर जाएगी, वहां दोबारा चुनाव करवाने की स्थिति बनी रहेगी। तब उपचुनावों को लेकर वन नेशन, वन इलेक्शन कैसे कहा जा सकेगा ?
एकसाथ चुनाव करवाने के संदर्भ में नीति आयोग ने अध्ययन किया और लोकसभा तथा विधानसभा के एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव आयोग ने इसका समर्थन कर दिया। इस प्रणाली को लागू कराने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। गत मार्च में इसने अपनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की गई। लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने के बाद 100 दिनों के भीतर स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं के चुनाव कराने की भी सिफारिश की गई।
केंद्र सरकार यह दावा करती है कि एक साथ चुनाव कराने से विकास कार्य प्रभावित नहीं होंगे और आर्थिक बोझ भी कम होगा। कोविंद समिति की रिपोर्ट में भी यही कहा गया है। चुनावों के दौरान आचार संहिता लागू होती है, इससे सरकार को नए फैसले लेने में कठिनाई होती है। केंद्र, राज्य, और स्थानीय निकायों के चुनावों में आचार संहिता लागू रहने से सरकारें कोई नया फैसला नहीं कर पाती। ऐसी स्थिति को टालने के लिए एक साथ चुनाव करवाना उपाय के तौर पर देखा जा रहा है। इसके अलावा सरकार यह भी दावा कर रही है कि एक साथ चुनाव लेने पर खर्च में भी कमी आएगी। ज्ञात हो कि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। जबकि वर्ष 2024 के चुनाव में यह खर्च 1.25 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने गया। विधानसभा चुनावों के लिए अलग से खर्च उठाना पड़ेगा।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोविंद समिति ने 62 राजनीतिक दलों से एक साथ चुनाव की नीति पर उनकी राय मांगी थी। 47 दलों ने जवाब दिया, इनमें से 32 दलों ने तो एक साथ चुनावों का समर्थन किया, जबकि 15 दलों ने विरोध किया। इनमें कांग्रेस, वामपंथी दल, आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी भी शामिल हैं। उनका कहना है कि एक साथ चुनाव करवाना मतलब संघीय ढांचे पर हमला है और इससे एक ही पार्टी का दबदबा बढ़ने का डर बना रहेगा।
विरोधी दलों का कहना है कि लोकसभा में जिस पार्टी को बहुमत मिलेगा, वही पार्टी राज्यों में भी सत्ता में आएगी। इसके अतिरिक्त अगर किसी पार्टी ने 5 साल में बहुमत खो दिया हो तो नए चुनाव हो सकते हैं। लेकिन नए लोकसभा या विधानसभा को पूरे 5 साल का समय नहीं मिल पाएगा।
एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में बदलाव करना जरूरी होगा। इसके लिए दो तिहाई सदस्यों का समर्थन भी आवश्यक होगा। लोकसभा में 362 और राज्यसभा में 156 सदस्यों का समर्थन आवश्यक होगा। भाजपा को इस संख्या को प्राप्त करने के लिए विपक्षी दलों की मदद लेनी पड़ेगी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव का विरोध किया है। ऐसे में अन्य दलों जैसे कि समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक भी इसके विरोध में नजर आती हैं। अगर इन दलों का विरोध जारी रहता है तो 190 सदस्यों का विरोध होना तय है। इससे संविधान संशोधन बिल को पास करना मौजूदा सरकार के लिए मुश्किल हो जाएगा। इस प्रकार, एक देश, एक चुनाव की पद्धति को लागू करने में भाजपा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।