संपादकीय :
महाराष्ट्र में आगामी कुछ दिनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। राज्य सरकार नित-नये योजनाओं के माध्यम से जनता को रिझाना चाहती है। अपने प्रचार के लिए अब सरकारी खजाने को दिल खोलकर लूटाने जैसी स्थिति दिखाई पड़ रही है। सरकारी योजनाओं के लिए सरकारी धन खर्च करना कोई अनुचित कार्य तो है नहीं। लेकिन सरकार की मंशा को लेकर स्वयं सत्ता पक्ष के कार्यकर्ताओं में नाराजगी दिख रही है। इसका मूल कारण यह है कि सत्ता पक्ष के कार्यकर्ता बरसों से और नि:स्वार्थ भावना से अपनी-अपनी पार्टी का काम कर रहे हैं। बदले में इन्हें क्या मिला ?
अब जब सरकार के योजनाओं का प्रचार करने की बारी आयी तो सरकार ने एक नई योजना लाँच कर दी। इस योजना में मानधन तत्व पर योजनादूत रखें जाएंगे। इनका काम यह होगा कि सरकार की योजनाओं का जनता के बीच जाकर प्रचार-प्रसार करना। अब यदि योजनादूत मानधन लेकर सरकार के कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार करेंगे तो सत्ता पक्ष के पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए कोई खास काम नहीं बच जाता। बरसों से कार्यकर्ताओं की सेवाओं और प्रचार पर योजनादूत लाकर बिठा दिये जाने जैसा मामला यहां नजर आ रहा है।
सरकार अपनी कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार के लिए जिस योजना को लाँच कर रही है, उससे महाराष्ट्र के सरकारी खजाने पर करीब 300 करोड़ से अधिक का बोझ पड़ेगा। यह सब इसलिए किया जा रहा है कि ताकि बीते अनेक दिनों से सरकार की ओर से जनता को आकर्षित करने के लिए जिन अनगिनत योजनाओं की झड़ी लगा दी गई है, उन योजनाओं को जमीनी स्तर तक पहुंचाना और उससे जनता का दिल जीतना मौजूदा सरकार के लिए सबसे कठिन कार्य बन गया है। योजनादूत के लाँच होने से यह भी एहसास होने लगा है कि सत्ता पक्ष के कार्यकर्ता अब जनता के बीच जाकर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को सही ढंग से समझा नहीं पाएंगे। इसके लिए मानधन तत्व पर नियुक्त किये जाने वाले पढ़े-लिखे योजनादूतों को काबिल समझा जा रहा है। और जो बरसों से सत्ता पक्ष के लिए प्रचार का काम कर रहे थे, उनकी योग्यता पर इस योजना के माध्यम से अनेक सवाल उठने लगे हैं।
सरकार ने इस तरह की योजना लाँच कर विरोधी दल को पटखनी देनी की सोची है। परंतु इसका विपरीत असर सत्ता पक्ष के ही कार्यकर्ताओं पर पड़ सकता है। क्योंकि भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी के सेवक एवं आम कार्यकर्ता बरसों से नि:स्वार्थ भावनाओं के साथ यही प्रचार का काम कर रहे हैं। इनके मुंह का निवाला छिनने जैसे हालात सरकार बनी रही है।
बीते लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में जिस तरह से वर्तमान सरकार के पक्ष में कम वोट मिले हैं, वह सरकार को अनेक योजनाओं को लाँच करने के लिए मजबूर कर गया है। सत्ता पक्ष के पार्टी कार्यकर्ताओं पर से जनता का उड़ता विश्वास दोबारा से हासिल करना सरकार के लिए जरूरी बन गया था। इसलिए सरकार ने आगामी विधानसभा चुनावों के संभावित नतीजों को ध्यान में रखते हुए अपने प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी खजाने पर 300 करोड़ रुपयों का बोझ डालने का फैसला कर लिया है।
कुछ जानकारों का कहना है कि राज्य सरकार विकास के मुद्दे पर विफल हो गई है। रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर तो सरकार की लगातार आलोचना हो रही है। इस समस्या से निपटने के लिए मानधन पर ही सही राज्य के हजारों बेरोजगार युवकों को रोजगार देना सरकार की मजबूरी भी बन गई है। एक ओर जहां तीनों घटक दल अपना राजनीतिक लाभ सेट करने के लिए आतुर हो चले हैं, वहीं दूसरी ओर इस योजना के माध्यम से सरकारी योजनाएं सीधे जनता के बीच पहुंचाकर वोट पाने की मंशा सरकार के लिए लाभप्रद हो सकती है, यह कयास लगाया जा चुका है। लेकिन इससे जो सरकारी धन की लूट मचेगी, उसका बोझ जनता को ही भूगतना पड़ेगा।
लाड़ली बहन योजना को लेकर सरकार शुरू से ही विवादों में रही है। लेकिन जिस तेजी के साथ सरकार ने इस योजना पर काम किया है, उससे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की ओर से राज्य भर की महिलाओं के मन को जीतकर वोट बटोरना एक रणनीति का हिस्सा है। लोकसभा चुनावों के नतीजों में जो हाल सत्ता पक्ष का हुआ है, उसे ठीक करने के लिए न जाने कितने ही तरह की युक्तियों पर अमल करने का अथक प्रयास जारी है। इस जद्दोजहद के बावजूद जनता की ढेरों समस्याओं ने सरकार का जीना मुहाल कर दिया है। महिला सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर भी सरकार लगातार घिर रही हैं। अब चुनाव करीब है और 10,000 रुपये के मानधन पर नियुक्त होने वाले योजनादूत सरकार के पक्ष में क्या कमाल कर दिखाएंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।
फिलहाल राजनीतिक गतिविधियां धार्मिक और सामाजिक मुद्दों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। कभी छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा के टूट जाने के मसले पर सत्ता पक्ष की किरकिरी हो गई तो कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को माफी मांगने की नौबत आन पड़ने से इस सरकार को बैकफूट पर आना पड़ा। सरकार के अनेक पैंतरे और लाख प्रयासों के बावजूद जनता वर्तमान में महंगाई और बेरोजगारी से काफी परेशान हैं। पिछले चुनावों की तरह ही लोकलुभावन योजनाओं के लाँच होने के बावजूद जनता सरकार की मंशा को भांपने लगी है। राज्य भर में विविध मुद्दों पर आंदोलनों का दौर चल पड़ा हैं। विरोधी दल भी कमर कसकर मैदान में अपना हुनर दिखा रहा है। सरकार की घोषणाओं के पीछे की मंशा को जनता तक पहुंचाने में विरोधी दल भी कम नहीं है।
कुल मिलाकर सत्ता पक्ष और विरोधी दल के बीच का यह राजनीतिक संघर्ष चुनावी आखाड़े में एक नये मोड़ पर आ गया है। सारा खेल अब प्रचार पर भी निर्भर दिख रहा है। जिसका जितना प्रचार, उसे मिलेंगे वोट बेशुमार, यह परिस्थिति सर्वत्र दिखने लगी है। सोशल मीडिया हो या मेन स्ट्रिम मीडिया, अब हर जगह नेताओं और दलों के नीतियों पर चर्चाएं घमासान मोड़ पर पहुंचने लगी है। चुनावी नतीजे चाहे जो भी आएं, आज के युग में प्रचार का महत्व हर सरकार और हर राजनीति को ज्ञात हो चुका है। किसी भी मोर्चे पर न तो सरकार पीछे हटना चाहती है और न ही विपक्ष अपने तंत्र को कमजोर पड़ने देना चाहता है। प्रचार ही अब सभी दलों के विचार के केंद्र में आ गया है।