चंद्रपुर जिले में 6 विधानसभा सीटें हैं। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में न तो भाजपा ने और न ही कांग्रेस ने इन 6-6 सीटों पर किसी महिला उम्मीदवार को मैंदान में उतारा और न ही सत्ता में प्रतिनिधित्व देने को लेकर कोई हलचल की। एक तरफ लाड़ली बहनों के प्रति असिम प्रेम जताना और दूसरी ओर उसका हक, अधिकार व हिस्सेदारी देने से परहेज करना, मौजूदा राजनीति का बदनूमा चेहरा बन गया है।
यशोधरा बजाज, शोभाताई फडणवीस और प्रतिभा धानोरकर के विधायक बनने के अलावा जिले में समग्र सत्ता पुरुषों के ही हाथ में रही है। जबकि आधी आबादी अर्थात महिलाओं के प्रतिनिधित्व को किसी न किसी बहाने से रोका जा रहा है। राज्य के परिदृश्य में देखा जाएं तो सर्वसामान्य कार्यकर्ता महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने में राजनीतिक दल रुकावटें डाल रहे हैं, जबकि वरिष्ठ नेताओं की पत्नी, पुत्री या बहू को ही मौका दिया जा रहा है। लाड़ली बहनें तो मानों केवल वोट देने भर के लिए लाड़ली बनकर रह गई है।
चंद्रपुर जिले में कुल 18 लाख 43 हजार 540 मतदाता मौजूद हैं। इनमें से 9 लाख 7 हजार 74 मतदाता तो महिलाएं हैं। इसके बावजूद जिले के 6 में से एक सीट भी महिलाओं के लिए नहीं छोड़ा जाना यह महिला सशक्तिकरण के ढिंगे हांकने वाले समाज का दुर्भाग्य ही है। केवल वोट पाने के लिए महिलाओं को बरगलाने के लिए उन्हें प्रलोभन देना और उनकी चिंता का दंभ भरना केवल और केवल दिखावे के अलावा और क्या हो सकता है ?
यदि राजनीतिक दलों को लाड़ली बहनें इतनी ही प्रिय होती तो फिर भी भाई उन्हें अपने साथ विधानमंडल में बैठने क्यों नहीं देना चाहते ? बड़ी हो या छोटी, बहन हमेशा भाई की लाडली होती है। हर साल वह भाई को राखी बांधती है। भाई दूज पर आरती उतारती है और बदले में भाई उसे मनपसंद उपहार देता है। शादी के बाद भी वह उसे मायके बुलाकर स्वागत करता है। लेकिन वही प्यारी बहन जब पिता की संपत्ति में अपना कानूनी हिस्सा मांगती है, तो भाई का गुस्सा भड़क उठता है। न केवल उसे वह हिस्सा नहीं मिलता, बल्कि उसका मायका भी उससे छूटता चला जाता है। अमूमन देखा गया है कि भाई का यह कहना होता है, तुम्हें मैंने जो उपहार दिए हैं, उसी में संतुष्ट रहो। तभी तुम मेरी प्यारी बहन हो। घर का भाई जैसा व्यवहार करता है, सत्ता में बैठा भाई भी वैसा ही व्यवहार करने लगा है।
इस बार तो उन्होंने प्यारी बहनों को हर महीने 1500 रुपये देने का वादा किया और कुछ ने इसे पूरा भी किया। चुनाव के बाद इसे बढ़ाकर 2100 रुपये करने का वादा किया गया। सत्ता से बाहर दूसरे भाई ने और भी आगे बढ़ते हुए कहा, दीदी, अगर तुम मुझे वोट दोगी तो मैं हर महीने 3000 रुपये दूंगा। लेकिन इन भाईयों में से किसी ने भी यह नहीं सोचा कि बहनों को विधानसभा में उनके बराबर हिस्सेदारी दी जाए।
288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में, सभी पार्टियों में से केवल 21 महिलाएं ही चुनी गईं, जो कुल संख्या का 10 % से भी कम है। लेकिन जिनकी संख्या स्वाभाविक रूप से पुरुषों के बराबर मानी जाती है, उन्हें इतना कम प्रतिनिधित्व आखिर क्यों ? क्या एक सभ्य समाज के रूप में हम कभी भी इस विषय पर चिंतन नहीं करेंगे ?
आधा आसमान महिलाओं का भी है। यह उनका प्राकृतिक अधिकार है, लेकिन जब तक कोई और उन्हें मौका न दे, उन्हें यह अधिकार क्यों नहीं मिलता ? यह सिर्फ भारत में नहीं हो रहा, दुनिया भर में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर ऐसा ही हाल है।
सवाल यह उठता है कि क्या महिलाएं केवल वोट देने भर के लिए हैं ? इस बार चुनाव में, “लाडली बहना योजना” ने महिलाओं को काफी महत्व दिया, लेकिन सिर्फ वोटर के रूप में। मध्य प्रदेश की इस योजना को महाराष्ट्र में लागू करने के लिए सरकार ने बड़ी पहल की। महिलाओं ने फॉर्म भरने के लिए लंबी कतारें लगाईं, जिससे चुनावी तस्वीर ही बदल गई। लेकिन सवाल उठता है, महिलाएं केवल 1500 रुपये लेकर वोट देने के लिए ही क्यों गिनी जाएं ? जब वे भाई की प्यारी हैं, तो उन्हें विधानमंडल में बराबरी का हक क्यों नहीं दिया जाता ? तब क्या यह मान लिया जाएं कि महिलाएं राजनीति में अयोग्य हैं ?
वर्ष 1992-93 में हुए 73वें संविधान संशोधन के तहत स्थानीय स्वशासन में 33 % आरक्षण मिला। इसके बाद गांवों की अनपढ़ महिलाओं ने भी अद्भुत प्रदर्शन किया। आज हजारों महिलाएं इस स्तर पर फैसले लेने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं और बेहतरीन तरीके से काम कर रही हैं। फिर भी हम क्या देख रहे हैं ? विधानसभा में महिलाएं और उनका प्रतिनिधित्व पिछड़ता हुआ हमें क्यों दिखाई पड़ रहा है ?
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार, महाराष्ट्र में राजनीति को समझने वाली और बेहतरीन काम करने की इच्छा रखने वाली कई महिलाएं हैं। लेकिन उन्हें छोटे-छोटे मौकों के लिए भी लंबा इंतजार करना पड़ता है। वर्षा गायकवाड़, यशोमती ठाकुर, नीलम गोऱ्हे, और सुप्रिया सुले जैसी कई महिलाएं राजनीति में मजबूत पकड़ रखती हैं। लेकिन अपनी बुद्धिमता और क्षमता का प्रदर्शन करने वाली महिलाओं को कोई जगह नहीं मिलती।
राजनीति में सफल होने की प्रक्रिया कठिन और ऊर्जा-खपत करने वाली होती है। पुरुष भी इस प्रक्रिया से गुजरते हैं, लेकिन उनके लिए अधिक मौके होते हैं। महिलाओं के लिए ऐसा नहीं है।
वर्ष 2019-24 की विधानसभा में 27 महिला विधायक थीं, लेकिन उनमें से किसी को मंत्री पद नहीं मिला। यहां तक कि महिला एवं बाल कल्याण विभाग, जिसे महिलाओं का अधिकार माना जाता है, वह भी मंगल प्रभात लोढ़ा के पास चला गया।
ममता बैनर्जी और जयललिता जैसे उदाहरण बताते हैं कि मजबूत महिला नेतृत्व किस तरह महिलाओं को राजनीतिक मंच पर जगह दिला सकता है। लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा कोई मजबूत महिला नेतृत्व उभर कर नहीं आया है।
सत्ता-लोलुप पुरुषप्रधान व्यवस्था में महिलाओं को भावनात्मक दबाव के तले दबा दिया जाता है। लेकिन जब वही महिलाएं सिर उठाकर अपने अधिकारों की मांग करती हैं, तो उन्हें नकारा जाता है। जब महिलाओं को अपनी ताकत का एहसास होगा, वही असली बदलाव की शुरुआत होगी।