भाजपा की खिल्ली उड़ाने वाली नीति, जहां जनकल्याण को रेवडी कल्चर कहते हुए नजर आती है, वहीं लाड़ली बहन योजना इससे परे कैसे चली गई। इस बीच विश्व में गूंज रहे अदानी के अपराध के मामलों पर क्या समझदार नागरिकों को वाकई में चिंता करने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “रेवड़ी संस्कृति” का उल्लेख पहली बार 16 जुलाई 2022 को उत्तर प्रदेश में एक जनसभा के दौरान किया था। उन्होंने यह टिप्पणी योजनाओं के नाम पर मुफ्त की घोषणाएँ करने वाले राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए की थी।
“रेवड़ी संस्कृति” का इस्तेमाल उन्होंने उन राजनीतिक दलों की आलोचना में किया था, जो चुनाव जीतने के लिए मुफ्त सुविधाओं और लाभों की पेशकश करते हैं। मोदी का तर्क था कि देश की जनता को लंबे समय तक आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने के बजाय यह संस्कृति उन्हें मुफ्त की चीजों पर निर्भर बना देती है, जो अर्थव्यवस्था और समाज के लिए हानिकारक है।
यह बयान तब आया जब कई राज्य सरकारें और विपक्षी पार्टियाँ मुफ्त बिजली, पानी, और अन्य सुविधाएँ देने के वादे कर रही थीं। इसे भाजपा के एजेंडे के खिलाफ माना गया, क्योंकि भाजपा का जोर आमतौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, आत्मनिर्भरता और दीर्घकालिक सुधारों पर हुआ करता था।
मोदी ने यह तर्क दिया कि मुफ्त उपहार देने की यह प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था पर बोझ डालती है और राज्य के वित्तीय संसाधनों को नुकसान पहुँचाती है। उन्होंने यह भी कहा कि लघु अवधि के लाभों के बजाय सरकारों को विकास और दीर्घकालिक समाधान पर ध्यान देना चाहिए।
मोदी ने मतदाताओं को भी जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि उन्हें यह समझना चाहिए कि रेवड़ी संस्कृति सिर्फ चुनावी फायदे के लिए अपनाई जाती है और इसका उद्देश्य जनता के दीर्घकालिक हितों के बजाय तात्कालिक वोट हासिल करना होता है।
प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद “रेवड़ी संस्कृति” एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन गया। विपक्षी दलों ने इसे लेकर भाजपा पर निशाना साधा और सवाल उठाए कि क्या कल्याणकारी योजनाएँ भी “रेवड़ी” की श्रेणी में आती हैं। आम आदमी पार्टी ने अपनी मुफ्त बिजली-पानी की योजनाओं को जनता का अधिकार बताते हुए मोदी की आलोचना की। कुछ ने भाजपा सरकार की पीएम किसान सम्मान निधि, उज्ज्वला योजना जैसी पहल को भी “रेवड़ी संस्कृति” के अंतर्गत बताया।
“रेवड़ी संस्कृति” का बयान राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन को लेकर बहस छेड़ने वाला था। पीएम मोदी ने इसे समाज और अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव डालने वाली प्रवृत्ति के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि विपक्ष ने इसे गरीबों के कल्याण से जोड़कर उनकी योजनाओं का बचाव किया।
इसके बाद तो भाजपा सरकारों ने ही रेवडी संस्कृति को अपना लिया। महाराष्ट्र की बात की जाएं तो लाड़ली बहन योजना इसका सशक्त उदाहरण है। केंद्र में भाजपा सरकार को इस विश्वास का होना स्वाभाविक है कि ऐसी योजनाओं और मुस्लिम विरोधी राजनीति के दो हथियारों के सहारे वह चुनावों में लगातार सफलता प्राप्त करेगी।
‘लाड़की बहन’ जैसी योजनाओं के माध्यम से चुनाव जीतना नैतिक रूप से सही है या गलत, इस पर सैद्धांतिक चर्चा हो सकती है और होती भी रहेगी।
भारत में लगभग 60 % परिवार ऐसे हैं, जिनकी मासिक आय 20,000 रुपये से कम है। ऐसे परिवारों के लिए हर महीने 1,500 रुपये की आर्थिक मदद बड़ी बात है। यह रकम उन्हें चुनाव से पहले ही मिलने लगी थी। चुनाव तक हर परिवार को लगभग 7,500 रुपये मिलने वाले थे। यह बात स्पष्ट थी, फिर भी एमवीए अपनी रणनीति में इसे ठीक से शामिल नहीं कर सकी।
जब ‘लाड़की बहन योजना’ की घोषणा हुई, तो MVA ने इसे केवल चुनावी रिश्वत कहकर सवाल उठाया। उनका कहना था, “अगर ऐसा नहीं होता, तो सत्ताधारी गठबंधन ने इसे पिछले तीन सालों में क्यों लागू नहीं किया?” लेकिन सिर्फ सवाल उठाना काफी नहीं था।
MVA ने अपनी 3,000 रुपये की ‘महालक्ष्मी योजना’ तुरंत लागू करने और उसका आक्रामक प्रचार करने में देरी की। उन्होंने इस योजना को चुनावी कार्यक्रम घोषित होने के बाद, प्रचार अभियान के दौरान ही पेश किया। और इसका प्रचार भी नियमित और प्रभावी तरीके से नहीं किया। केवल राहुल गांधी और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर बात की। शिवसेना ने इसे अपने अन्य एजेंडे के साथ हल्के तरीके से उठाया।
जब यह स्पष्ट था कि ‘लाड़की बहन’ योजना से पैसा सीधे परिवारों तक पहुँच रहा है, तो MVA ने अपनी 3,000 रुपये की योजना को लगातार और विश्वास के साथ क्यों नहीं प्रचारित किया? शरद पवार जैसे अनुभवी और चतुर राजनेता ने इसे समय पर क्यों नहीं समझा?
शरद पवार की सैद्धांतिक स्थिति इस देरी का कारण हो सकती है। वे कभी भी ऐसी कल्याणकारी योजनाओं को लेकर उत्साहित नहीं रहे हैं। जब वे केंद्र में कृषि मंत्री थे, तो यूपीए सरकार ने ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ लाया था। लेकिन शरद पवार ने इस कानून के दायरे का लगातार विरोध किया। मनरेगा के प्रति भी उनकी शुरुआती सकारात्मक सोच में बदलाव आ चुका है।
इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी ने इन योजनाओं की आलोचना करने के बावजूद उन्हें चालू रखा। इतना ही नहीं, खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अनाज की मामूली कीमत भी हटा दी और मुफ्त अनाज देना शुरू किया। भले ही मोदी ने अन्य योजनाओं को ‘रेवड़ी’ कहकर आलोचना की, लेकिन भाजपा शासित कई राज्यों में ऐसी ही योजनाओं को बढ़ावा दिया गया।
शरद पवार जैसे अनुभवी नेता ने यह क्यों नहीं सोचा कि जब उद्धव ठाकरे की सरकार सत्ता में थी, तब ऐसी योजना शुरू करनी चाहिए थी? यह एक रहस्य है।
‘लाड़की बहन योजना’ की सफलता के बाद, नकद लाभ देने वाली योजनाओं को और गति मिलने की संभावना है। भाजपा सरकार को यह भरोसा है कि ऐसी योजनाओं और मुस्लिम विरोधी राजनीति के सहारे वह चुनावों में जीत हासिल करेगी। और ऐसा हो भी रहा है।
यह चुनाव केवल परिणामों की वजह से नहीं, बल्कि ‘कटेंगे तो बटेंगे’ जैसे अपमानजनक नारों के कारण चौंकाने वाले रहे। महाराष्ट्र जैसे राज्य, जो शाहू, फुले और आंबेडकर के विचारों और समानता के मूल्यों का प्रतीक है, वहां इस तरह की सांप्रदायिक राजनीति का सफल होना दुखद है।
मोदी सरकार के एक दशक के शासन के बाद, ‘वोट जिहाद’ और ‘धर्म युद्ध’ जैसे नारों का इस्तेमाल उन नेताओं द्वारा किया गया, जिन्होंने पहले कभी इस तरह की सांप्रदायिक भाषा का सहारा नहीं लिया।
यह चुनाव उन लोगों के लिए निराशाजनक रहा, जो ऐसी राजनीति के विरोधी हैं। इससे लोकतांत्रिक मूल्यों और समानता की सोच पर गहरी चोट पहुँची है।