अब गड्ढों के कारण गिरोगे तो अफसर से वसूलेंगे जुर्माना

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■ जनता टैक्स देती है, ताकि सड़कें बने, न कि कब्रिस्तान!

■ गड्ढे में गिरकर जान जाती है तो यह प्रशासनिक हत्या

चंद्रपुर.
अब गड्ढों से होने वाली मौतों पर मुआवजा संबंधित अधिकारियों की सैलरी से काटा जाएगा। यह कोई और नहीं बल्कि हाईकोर्ट ने आदेश जारी किया है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने सख्त रुख में कहा है कि अगर गड्ढों के कारण किसी व्यक्ति की जान जाती है या चोट लगती है, तो उसके लिए मिलने वाला मुआवजा संबंधित अधिकारियों की सैलरी से वसूला जा सकता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि सड़क रखरखाव की जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही करने वाले स्थानीय नगर निगम अधिकारी, अभियंता या ठेकेदार को व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह ठहराया जाएगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकारी संस्थाओं को केवल सामूहिक जिम्मेदारी के पीछे नहीं छिपना चाहिए। जब किसी की जान गड्ढों की वजह से जाती है, तो इसका असर सीधे उन अधिकारियों पर होना चाहिए जिन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया। हाईकोर्ट का यह फैसला नागरिकों की सुरक्षा और सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है।

अब भरना पड़ेगा अफसरों को दाम !
महाराष्ट्र में सड़कें अब मौत का जाल बन चुकी हैं। हर मोड़ पर, हर गली में, हर हाईवे पर गड्ढे ऐसे हैं जैसे किसी ने जनता की जान की परवाह ही छोड़ दी हो। इन गड्ढों से होने वाले हादसे आम बात बन गए हैं, लेकिन अब अदालत ने ऐसा झटका दिया है जो सीधे अफसरों की जेब तक पहुंचेगा।
भरपाई होगी, वो भी अधिकारियों की तनख्वाह से!
बॉम्बे हाईकोर्ट ने साफ-साफ कहा है कि गड्ढों के कारण होने वाले हादसों में मारे गए या घायल हुए लोगों के परिजनों को मुआवजा देना ही होगा। और यह रकम संबंधित महानगर पालिका या नगर पालिका के अधिकारियों की सैलरी से काटी जाएगी। यानी अब सिस्टम का अर्थ केवल कागज़ी आदेश नहीं, बल्कि व्यक्तिगत जवाबदेही है।

ठेकेदारों की जवाबदेही तय, मनपा पर भी गाज
कोर्ट ने यह भी कहा कि सड़क निर्माण या मरम्मत का ठेका लेने वाले ठेकेदार और कामकाज पर नजर रखने वाले मनपा अभियंता दोनों बराबर जिम्मेदार होंगे। जो सड़कें जनता के टैक्स से बनती हैं, अगर वही सड़कें मौत का कारण बनें तो जनता को मुआवजा देना इन अफसरों और ठेकेदारों का फर्ज है।

चंद्रपुर का हाल : सड़क नहीं, जख्म है
मुंबई हो, पुणे हो या नागपुर। या हमारा बदहाल हो चुका चंद्रपुर। ऐसा एक भी रास्ता नहीं जहाँ गड्ढे न हों। कहीं सड़कों के काम अधूरे पड़े हैं, तो कहीं नया डामर डालते ही बारिश में बह जाता है। कुछ जगहों पर तो हाल यह है कि मरम्मत का ठेका खत्म होने से पहले ही सड़क फिर से उखड़ जाती है। चंद्रपुर शहर में 2 मुख्य मार्ग हैं। एक कस्तूरबा मार्ग और दूसरा जटपुरा मार्ग। चंद माह पूर्व ही इन मार्गों का निर्माण किया गया था। और यह सड़कें 3 महीने में ही उखड़ गई। गहरे गड्ढों का निर्माण हो चुका हैं। इनमें कच्ची गिट्‌टी बिछाई गई है। वाहनों के आवागमन से यह गिट्‌टी सड़कों पर बिखर गई है। इस गिट्‌टी से दुपहिया वाहन फिसलकर दुर्घटनाओं का शिकार होने लगे हैं। और गड्ढों की गहराई पुन: दिखाई पड़ने लगी है।
फिर भी मनपा अधिकारी आराम से दफ्तरों में बैठे हैं, मानो जनता की जान उनकी जिम्मेदारी नहीं बल्कि सिरदर्द हो। यह केवल प्रशासन की लापरवाही नहीं, बल्कि जनहित के प्रति आपराधिक असंवेदनशीलता है।

ग्रामीण और शहरी दोनों ही बेहाल
गड्ढों का यह जाल केवल शहरों तक सीमित नहीं। ग्रामीण इलाकों और राज्य के महामार्गों की हालत भी वैसी ही है। सार्वजनिक निर्माण विभाग (PWD) ने कुछ साल पहले ‘खड्डा दिसला की तक्रार करा’ योजना चलाई थी। नागरिकों से कहा गया था कि वे गड्ढों की तस्वीरें ऐप पर अपलोड करें। पर नतीजा? वही ढाक के तीन पात। तस्वीरें भेजी गईं, लेकिन न सड़के बनीं न जवाब मिला।

त्योहार भी नहीं बचे गड्ढों से
गणेशोत्सव और नवरात्र जैसे बड़े त्योहारों में भी नागरिकों को गड्ढों के बीच से यात्रा करनी पड़ी। जहाँ-जहाँ जनता ने आवाज उठाई, वहाँ अस्थायी तौर पर खड़ी या मुरुम या फिर गिट्‌टी डालकर खानापूर्ति कर दी गई। लेकिन असली मरम्मत आज भी अधूरी है। उत्सव बीत गया, पर गड्ढे जस के तस हैं।

शिकायत व्यवस्था भी नाम की
सरकार और अदालतें आदेश देती हैं लेकिन स्थानीय प्रशासन का रवैया वैसा ही ढुलमुल रहता है। समिति बना दी, ऑफिसर नियुक्त कर दिया, बस यही दिखावा होता है। असल काम तो शून्य ही है। शिकायत दर्ज करने या कार्रवाई देखने की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। जनता को आवाज उठाने का हक तो है, पर सुनने वाला कोई नहीं है।

अब अगर नहीं सुधरे तो सीधे वेतन से कटेगा दंड
हाईकोर्ट ने सरकार और सभी नगरपालिकाओं को स्पष्ट आदेश दिया है कि गड्ढों के कारण होने वाले हर हादसे की जिम्मेदारी तय की जाए। अगर किसी की मौत होती है, तो ठेकेदार और संबंधित अधिकारी की जेब से ही मुआवजा दिया जाएगा। यानी अब जनता की मौत पर माफ़ी नहीं, वेतन कटौती और दंड वसूली होगी। यह आदेश सिर्फ कानूनी नहीं, यह एक नैतिक झटका है। सालों से महाराष्ट्र के लोग टैक्स भरते रहे, टोल देते रहे, लेकिन बदले में मिला केवल धूल, गड्ढे और दुर्घटनाएँ। अब अदालत ने जो कदम उठाया है, वह जनता के लिए राहत और प्रशासन के लिए चेतावनी है। अब वक्त आ गया है कि हर अधिकारी अपने दस्तख़त का मतलब समझे। क्योंकि अगली बार सड़क पर पड़ा गड्ढा केवल नागरिक की नहीं, उसकी तनख्वाह की कीमत भी ले सकता है।

यह फैसला शासन की मानसिकता पर प्रहार
जहाँ जनता की जान का मोल फ़ाइलों से तय होता है और ठेकेदारों की लापरवाही पर आँखें मूँद लेना प्रशासनिक परंपरा बन चुकी है। अब अदालत का यह फैसला उस पर पहला असली वार है। मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने आखिरकार वो कहा जो आम नागरिक बरसों से चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था। सड़क के गड्ढे सिर्फ गड्ढे नहीं, मौत के फंदे हैं। राज्य सरकार और स्थानीय निकायों की सुस्ती, लापरवाही और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को न्यायपालिका ने थोड़ी राहत दी है। अदालत ने कहा है कि अब सड़कों पर गड्ढों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी ठेकेदारों और संबंधित अधिकारियों पर तय होगी। और यदि मुआवजा देना पड़े तो यह रकम उनकी सैलरी से काटी जाए!

गड्ढों पर सरकार की खामोशी
मुख्य सवाल यह है कि जनता की जान इतनी सस्ती क्यों है ? मुंबई हाई कोर्ट ने साफ कहा राज्य सरकार गड्ढों से मौतें रोकने में विफल रही है। हर मानसून में सड़कें चिथड़े-चिथड़े हो जाती हैं, ठेकेदार करोड़ों रुपये लेकर रफ़ूचक्कर हो जाते हैं, और नगर पालिकाएं अपनी आंखें मूंद लेती हैं। अदालत ने इसे सीधे शब्दों में कहा अब बहाने नहीं चलेंगे। जो सड़क बनाएगा, वही जवाब देगा

ठेकेदार और अधिकारी – दोनों जवाबदेह
कोर्ट ने आदेश दिया कि ठेकेदारों की जवाबदेही तय की जाए और जिन अधिकारियों ने निगरानी में कोताही बरती, उनके वेतन से जुर्माना वसूला जाए। यह आदेश सिर्फ दंड नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। जनता के पैसों से सड़कें बनाओ, तो जनता के जीवन से मत खेलो।

नई सड़क पर गड्ढे क्यों ?
अदालत ने तीखे शब्दों में पूछा कि नई बनी सड़कों पर गड्ढे क्यों पड़ते हैं ? क्या यह सरकारी धन की खुली लूट नहीं ? कोर्ट ने कहा अगर सड़क पर पानी भर जाए और नागरिक गड्ढा न देख पाए, तो उसकी मौत के लिए कौन जिम्मेदार होगा ? यह सवाल हर उस नागरिक के मन की आवाज़ है जो रोज़ अपने दोपहिया पर गड्ढों से बचते हुए मौत के साए में सफ़र करता है।

गोंदिया प्रशासन का शर्मनाक बचाव
गोंदिया नगर पालिका के वकील ने अदालत में कहा कि मौतें वाहन चालकों की लापरवाही से हुईं। कोर्ट ने इस दलील को सीधे-सीधे निर्लज्जता बताया। न्यायाधीशों ने कहा दुर्घटनाओं का असली कारण गड्ढों से बचने की कोशिश है, न कि चालकों की गलती। जब सड़कें खुद मौत का जाल बन चुकी हों, तब जनता से सावधानी की उम्मीद करना राज्य की संवेदनहीनता का चरम है।

मनपा की नींद कब खुलेगी ?
शहर की हर सड़क, हर गली गड्ढों से भरी है। मरम्मत सिर्फ दिखावे के लिए होती है। थोड़ी सी गिट्‌टी, थोड़ा-सा मुरुम डालकर फोटो खिंचवाओ और फाइल बंद! गणेशोत्सव और नवरात्र जैसे त्यौहारों में भी नागरिकों को गड्ढों के बीच से जुलूस निकालने पड़े, पर प्रशासन सोता रहा।

एक सप्ताह में गड्ढे भरें
नागपुर खंडपीठ ने सभी मनपा एवं नगर पालिकाओं को आदेश दिया है कि 7 दिन के भीतर गड्ढे भरे जाएं, और जिन ठेकेदारों की वजह से सड़कें खराब हुई हैं, उन्हें ब्लैकलिस्ट किया जाए। यह आदेश सिर्फ एक कानूनी निर्देश नहीं, बल्कि एक जनहित का अलार्म है। अगर अब भी प्रशासन नहीं चेता, तो अगला कदम शायद और कठोर होगा। अगर अधिकारी और ठेकेदार जवाबदेह नहीं बने, तो हर गड्ढा किसी नई मौत का इंतज़ार करता रहेगा। अदालत ने जो कहा है, वह जनता की आवाज़ है। अब देखना यह है कि सरकार इसे आदेश मानेगी या सिर्फ औपचारिकता निभाएगी।

गड्ढे नहीं, मौत के कुंड!
हाईकोर्ट ने बीते दिनों महाराष्ट्र सरकार से पूछा, “कब बनेगी मुआवज़े की नीति?” ठेकेदारों और अफसरों की लापरवाही पर अदालत ने सख्त प्रहार किया। मामूली जुर्माने पर फटकार भी लगाई। क्या गड्ढों से घायल या मारे गए नागरिकों के परिजनों को मुआवज़ा देने के लिए कोई ठोस नीति बनेगी या सब कुछ यूं ही चलता रहेगा? यह सवाल सिर्फ एक कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि जनता के दर्द की प्रतिध्वनि है। उस आम आदमी की आवाज़, जो हर बारिश में मौत से जूझता है, सिर्फ इसलिए क्योंकि किसी ठेकेदार ने घटिया सड़क बनाई और किसी अधिकारी ने आंखें मूंद लीं। जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस संदेश बी. पाटिल की खंडपीठ ने स्पष्ट कहा कि नगर निगमों को अपने कार्यों के लिए जवाबदेह बनाना ही होगा। और यदि नागरिकों की मौत उनकी लापरवाही से हो रही है, तो मुआवज़े की रकम उनके ही वेतन से वसूली जानी चाहिए। यह टिप्पणी सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि भ्रष्ट और निष्क्रिय प्रशासन के मुंह पर तमाचा है। कोर्ट ने कहा कि मामूली जुर्माने से कुछ नहीं होगा। जब तक दोषियों को आर्थिक रूप से चोट नहीं पहुंचेगी, तब तक जिम्मेदारी की संस्कृति पैदा नहीं होगी।

ठेकेदारों पर सिर्फ लाखों का जुर्माना, जबकि ठेके करोड़ों के!
कोर्ट ने जब पूछा कि ठेकेदारों पर क्या कार्रवाई हुई, तो मुंबई बीएमसी ने जवाब दिया कि 1 लाख से 10 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया गया है। इस पर अदालत भड़क उठी। जब ठेके करोड़ों में दिए जाते हैं, तब इतना मामूली जुर्माना किसे डराएगा? क्या यह दिखावे की सजा नहीं है? यह टिप्पणी सीधी चोट है उस प्रणाली पर, जिसमें ठेकेदार जनता के पैसों से करोड़ों की लूट करते हैं, सड़कें सीज़नल बनती हैं, और हादसों में निर्दोष लोग मारे जाते हैं। पर जवाबदेह कोई नहीं!

सड़कें हमारी, मजा ठेकेदारों की
हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि अगर गड्ढे में गिरकर किसी की जान जाती है, तो यह सिर्फ दुर्घटना नहीं, बल्कि प्रशासनिक हत्या है। यह टिप्पणी आने वाले समय में सरकार और निकायों के लिए एक कानूनी मिसाल बन सकती है। अदालत ने कहा कि ठेकेदारों और अधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया जाए और जनता के टैक्स से नहीं, उनकी सैलरी से मुआवजा दिया जाए। जब सड़कों पर मौत होती है, तो दोष सिर्फ बीएमसी पर क्यों आता है, क्योंकि बाकी एजेंसियां तो अपने कर्तव्यों से भाग जाती हैं। पीठ ने कहा कि राज्य सरकार को तय करना होगा कि शहर की सड़कों की केंद्रीकृत जवाबदेही किसके पास है, वरना गड्ढों का यह खेल कभी खत्म नहीं होगा।

गड्ढे बन गए शासन की कब्रगाह
हर मानसून में सरकारें वही पुराना गीत गाती हैं। मरम्मत जारी है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन गड्ढों में जनता की उम्मीदें, भरोसा और कभी-कभी ज़िंदगी तक दफन हो जाती है। हाईकोर्ट की फटकार महाराष्ट्र सरकार के लिए अंतिम चेतावनी है। या तो जवाबदेही तय करो, या जनता अब अदालत के बजाय सड़कों पर न्याय मांगेगी।