आजादी के 79 साल – लोकतंत्र की आड़ में तानाशाही का खतरा

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संपादकीय: 

भारत अपनी आजादी की 79वीं वर्षगांठ मना रहा है। यह अवसर गर्व और आत्ममंथन दोनों का है। 15 अगस्त, 1947 को जब भारत ने औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों को तोड़ा, तब एक स्वतंत्र, समावेशी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का सपना देखा गया। यह सपना हमारे संविधान में साकार हुआ, जो भारत की विविधता, एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों का आधार बना। लेकिन आज, जब हम इस ऐतिहासिक पड़ाव पर खड़े हैं, यह सवाल उठता है कि क्या हमारा लोकतंत्र वही है, जिसकी परिकल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी? या यह धीरे-धीरे तानाशाही की ओर बढ़ रहा है? लोकतंत्र के चारों स्तंभ—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया—पर बढ़ता दबाव, धार्मिक उन्माद, हिंदुराष्ट्र की उग्र अवधारणा और संवैधानिक मूल्यों पर हमले यह चेतावनी दे रहे हैं कि हमारा लोकतंत्र अपनी आत्मा को खोने की कगार पर है।

भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि देश की आत्मा है। यह विविधता में एकता, धर्मनिरपेक्षता, समानता और स्वतंत्रता का प्रतीक है। डॉ. बी. आर. आंबेडकर और संविधान सभा के अन्य सदस्यों ने इसे इस तरह गढ़ा कि यह हर भारतीय को, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग या क्षेत्र से हो, समान अधिकार और अवसर प्रदान करे। लेकिन हाल के वर्षों में, संवैधानिक मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं। हिंदुराष्ट्र की अवधारणा को बढ़ावा देने वाली ताकतें न केवल धर्मनिरपेक्षता को चुनौती दे रही हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी कमजोर कर रही हैं। धार्मिक आधार पर समाज को बांटने वाले बयान, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने वाली नीतियां देश के सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर रही हैं।

हिंदुराष्ट्र का विचार संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को नकारता है। भारत हमेशा से विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और विचारधाराओं का संगम रहा है। बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाई और हिंदू धर्म के साथ-साथ असंख्य क्षेत्रीय परंपराएं और भाषाएं इस देश की ताकत हैं। लेकिन जब एक धर्म को दूसरों पर थोपने की कोशिश की जाती है, तो यह न केवल संविधान का उल्लंघन है, बल्कि भारत की आत्मा पर हमला है। धर्मनिरपेक्षता भारत की पहचान का अभिन्न अंग है। इसे कमजोर करने की कोशिशें देश को उसकी मूल भावना से दूर ले जा रही हैं। संविधान की रक्षा के लिए हमें एकजुट होना होगा, क्योंकि इसके बिना भारत की आत्मा अधूरी है।

सामाजिक एकता भारत की सबसे बड़ी ताकत रही है, लेकिन आज यह नफरत और विभाजन की आग में जल रही है। सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक, नफरत भरे भाषणों और धार्मिक उन्माद का बोलबाला है। नेताओं, प्रभावशाली व्यक्तियों और तथाकथित धार्मिक गुरुओं द्वारा दिए गए भड़काऊ बयान समाज में वैमनस्य फैलाने का काम कर रहे हैं। गंभीर बात यह है कि ऐसे बयानों और कार्यों को कथित रूप से संरक्षण प्राप्त होने के आरोप सामने आ रहे हैं। जब नफरत को सामाजिक मान्यता मिलने लगती है, तो समाज अपने मूल्यों को खो देता है। सोशल मीडिया ने इस समस्या को और गहरा किया है। फर्जी खबरें, भ्रामक प्रचार और ट्रोलिंग ने सामाजिक तनाव को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम और ईसाई समुदायों, के खिलाफ नफरत भरे अभियान चलाए जा रहे हैं। मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक दंगे और धार्मिक आधार पर हिंसा की घटनाएं समाज में डर और अविश्वास का माहौल पैदा कर रही हैं।

यह समय है कि हम नफरत के इस जहर के खिलाफ एकजुट हों। सरकार को नफरत भरे भाषणों और हिंसा को बढ़ावा देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी होगी। नागरिक समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। हमें अपने पड़ोसियों, सहकर्मियों और समुदायों के साथ आपसी समझ और भाईचारे को बढ़ावा देना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को विविधता और समावेशिता का महत्व सिखाना होगा। केवल एकजुट होकर ही हम इस सामाजिक संकट को दूर कर सकते हैं और भारत की सामाजिक एकता को पुनर्जनन दे सकते हैं।

लोकतंत्र की ताकत उसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्थाओं में निहित है। लेकिन आज, भारत में कई महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। चुनाव आयोग, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का आधार है, उसकी कार्यप्रणाली पर बार-बार उंगलियां उठ रही हैं। विपक्षी दलों, नागरिक समाज और विशेषज्ञों ने चुनावी प्रक्रियाओं में कथित पक्षपात और अनियमितताओं की बात कही है। मतदाता सूची में हेरफेर, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की विश्वसनीयता पर सवाल और चुनावी प्रचार में सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग जैसे मुद्दे लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गए हैं। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठते सवालों ने जनता का भरोसा कमजोर किया है। अगर लोकतंत्र का यह आधार कमजोर हो गया, तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की अवधारणा खतरे में पड़ जाएगी।

न्यायपालिका, जो संविधान की रक्षा का अंतिम गढ़ है, उसकी स्वतंत्रता पर भी सवाल उठ रहे हैं। कुछ हाई-प्रोफाइल मामलों में न्यायिक फैसलों को लेकर जनता का अविश्वास बढ़ा है। सरकार और कॉरपोरेट ताकतों के दबाव में न्यायपालिका की स्वायत्तता कमजोर होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। न्यायपालिका पर जनता का भरोसा बनाए रखना जरूरी है, क्योंकि यह लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ है। अगर यह कमजोर पड़ता है, तो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना मुश्किल हो जाएगा। इन संस्थाओं को मजबूत करने के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और स्वतंत्रता सुनिश्चित करना जरूरी है। चुनाव आयोग को अपनी निष्पक्षता साबित करने के लिए और अधिक सक्रियता दिखानी होगी। इसे अपनी प्रक्रियाओं को और पारदर्शी बनाना होगा, ताकि जनता का भरोसा बहाल हो। इसी तरह, न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके फैसले संविधान के मूल्यों और जनता के हितों को सर्वोपरि रखें।

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन आज यह अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। कॉरपोरेट और सरकारी दबावों ने पत्रकारिता को सत्य की खोज से भटका दिया है। मुख्यधारा के कई मीडिया हाउस सरकार की नीतियों का प्रचार करने और सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने में लगे हुए हैं। फर्जी खबरें, सनसनीखेज हेडलाइंस और पक्षपातपूर्ण कवरेज ने जनता के बीच भरोसे का संकट पैदा किया है। सोशल मीडिया पर गलत सूचनाओं का प्रसार और ट्रोलिंग ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। पत्रकारों पर हमले, उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश और प्रेस की आजादी पर बढ़ता दबाव चिंताजनक है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग लगातार गिर रही है, जो इस बात का संकेत है कि हमारी पत्रकारिता संकट में है।

स्वतंत्र पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए समाज को आगे आना होगा। पत्रकारों को बिना डर के सत्य को सामने लाने का माहौल देना होगा। नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और फर्जी खबरों के जाल में फंसने से बचना होगा। मीडिया हाउसों को अपने हितों से ऊपर उठकर जनता के हित में काम करना होगा। पत्रकारिता का उद्देश्य सत्ता का गुणगान करना नहीं, बल्कि सत्य को उजागर करना और समाज को जागरूक करना है।

लोकतंत्र केवल राजनीतिक अधिकारों तक सीमित नहीं है; यह आर्थिक और सामाजिक समानता पर भी निर्भर करता है। लेकिन आज भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता, महंगाई और बेरोजगारी आम जनता को परेशान कर रही हैं। कॉरपोरेट जगत का नीतियों पर बढ़ता प्रभाव और सरकार की कुछ नीतियां गरीब और मध्यम वर्ग को और हाशिए पर धकेल रही हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों को हवा देकर इन बुनियादी समस्याओं से ध्यान हटाने की कोशिशें निंदनीय हैं। सरकार को जनता की मूलभूत जरूरतों—रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार—को प्राथमिकता देनी होगी।

आर्थिक असमानता ने समाज में एक गहरी खाई पैदा की है। अमीर और गरीब के बीच की दूरी लगातार बढ़ रही है। युवाओं में बेरोजगारी की दर चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है। ग्रामीण भारत आज भी बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वच्छ पानी, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए तरस रहा है। इन समस्याओं को नजरअंदाज करके धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों को प्राथमिकता देना जनता के साथ विश्वासघात है। सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो समावेशी विकास को बढ़ावा दें और हर नागरिक को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करें। बिना आर्थिक समानता के लोकतंत्र अधूरा है।

आजादी के 79 साल बाद भारत एक दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का रास्ता है, तो दूसरी तरफ तानाशाही प्रवृत्तियों और धार्मिक उन्माद का खतरा। यह समय आत्ममंथन का है। हमें यह तय करना होगा कि हम अपने लोकतंत्र को एक मुखौटा बनने दें, या इसे सच्चे अर्थों में जीवंत बनाएं। लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकार या संस्थाओं की नहीं, बल्कि हर नागरिक की है। हमें संविधान के मूल्यों—समानता, स्वतंत्रता, न्याय और धर्मनिरपेक्षता—को अपने जीवन में उतारना होगा। हमें नफरत और विभाजन के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हमें अपनी संस्थाओं को मजबूत करने और मीडिया की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए एकजुट होना होगा।

इस आजादी दिवस पर हमें संकल्प लेना होगा कि हम अपने लोकतंत्र की रक्षा करेंगे। यह तभी संभव होगा जब हर नागरिक को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का हक मिले। हमें अपने बच्चों को एक ऐसा भारत देना है जहां वे बिना डर के अपने सपनों को साकार कर सकें। हमें एक ऐसा समाज बनाना है जहां हर धर्म, हर संस्कृति और हर विचारधारा का सम्मान हो। आजादी का असली जश्न तभी होगा जब भारत का हर नागरिक बिना भेदभाव के अपनी पूरी क्षमता के साथ जी सके।

लोकतंत्र एक नाजुक पौधा है। इसे पनपने के लिए निरंतर देखभाल और प्रयास की जरूरत है। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम इस पौधे को नफरत, भय और तानाशाही की आंधी से बचाएं। इस आजादी दिवस पर आइए, हम संकल्प लें कि हम अपने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे। यह संकल्प ही भारत को सच्चे अर्थों में स्वतंत्र और समृद्ध बनाएगा।