सिंधु नदी का पानी : क्या भारत रोक सकता है?

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संपादकीय

आजकल कई नेता और मंत्री कह रहे हैं कि भारत, पाकिस्तान को सिंधु नदी का एक भी बूंद पानी नहीं देगा। सवाल यह है कि क्या यह सचमुच मुमकिन है? और अगर हां, तो कैसे ?

पहले सोचिए जो सरकार जम्मू-कश्मीर के पहलगाम जैसे इलाकों में सुरक्षा तक ठीक से नहीं दे पाती, जहां हजारों लोग इकट्ठा होते हैं। वही सरकार क्या छह-छह नदियों के पानी को पूरी तरह रोक सकती है ?

वर्ष 2023 में मंडी ज़िले में जब बाढ़ आई थी, तो ब्यास नदी का पानी अनियंत्रित था। अगर किसी फाइल पर साइन कर बाढ़ को रोका जा सकता तो हिमाचल में इतनी तबाही नहीं होती। ब्यास का पानी सतलुज में मिलता है और फिर सिंधु में जाकर बहता है। इस तेज़ बहाव को रोकना कितना मुश्किल है, यह हर साल बाढ़ में साफ दिखता है।

1947 में जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था, तब लोग ऊंटों के सहारे ब्यास नदी पार कर रहे थे। बाढ़ के कारण लाहौर के पास हजारों लोग डूब कर मर गए थे। उस समय भी अफवाह फैली थी कि बाढ़ जानबूझकर फैलाई गई है, लेकिन हकीकत थी बारिश के कारण आई बाढ़।

नदियां तो तब भी बहती थीं जब न देश थे, न सरहदें। गंगा, सिंधु, ब्यास जैसी नदियों का बहाव करोड़ों साल से तय है। ये रास्ते 2014 में नहीं बने। आज के मंत्री अगर कहें कि हम नदियों का पानी रोक देंगे, तो ये प्रकृति से लड़ने जैसा होगा।

जलशक्ति मंत्री सीआर पाटिल और भाजपा सांसद निशिकांत दुबे कह रहे हैं कि “पाकिस्तान को एक बूंद पानी नहीं देंगे” और “बांग्लादेश का भी पानी रोक देंगे।” लेकिन क्या गंगा जैसी विशाल नदी को सच में कोई रोक सकता है? अगर जबरन रोका गया, तो बिहार और बंगाल में भीषण बाढ़ आ जाएगी, और खुद भारत को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।

सिंधु नदी व्यवस्था में सिर्फ सिंधु ही नहीं, बल्कि रावी, ब्यास, सतलुज, चेनाब और झेलम नदियाँ भी शामिल हैं। इन नदियों के पानी को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में सिंधु जल संधि हुई थी। इस संधि के मुताबिक भारत को पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास, सतलुज) का ज्यादा पानी इस्तेमाल करने का अधिकार है। पश्चिमी नदियों (सिंधु, चेनाब, झेलम) का ज्यादातर पानी पाकिस्तान को मिलना है। भारत इन नदियों के पानी का सीमित उपयोग कर सकता है, जैसे खेती के लिए, पीने के लिए, या बिजली बनाने के लिए। लेकिन पानी को पूरी तरह से रोकने का अधिकार नहीं है। इतने सालों में भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्ध हुए, कई आतंकवादी हमले हुए, लेकिन फिर भी सिंधु जल संधि नहीं टूटी। दोनों देशों ने इसे निभाया है।

अगर भारत पानी रोकने की कोशिश करेगा, तो अमेरिका और विश्व बैंक जैसे बड़े देशों और संस्थाओं का दखल बढ़ जाएगा। और खुद भारत की छवि एक जिम्मेदार देश के तौर पर खराब हो सकती है। हाल ही में अमेरिका के नेता ट्रंप ने भी बयान दिया कि वे भारत और पाकिस्तान दोनों के करीबी हैं। इससे साफ है कि बड़ा फैसला लेते समय अंतरराष्ट्रीय दबाव भी देखा जाएगा। भावनाओं में बहकर नहीं, समझदारी से सोचना चाहिए। नदियां हमारी सभ्यता और प्रकृति की धरोहर हैं। उनका बहाव रोकने की बातें करना आसान है, लेकिन हकीकत में यह करना न तो इतना आसान है, न ही फायदेमंद। इतिहास, भूगोल और विज्ञान को समझकर ही भविष्य का रास्ता तय करना चाहिए।

विशेषज्ञों का साफ कहना है कि कोई भी देश इस संधि को अकेले अपनी मर्जी से खत्म नहीं कर सकता। अगर भारत ऐसा करने की कोशिश करेगा तो अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन होगा, और दुनिया भर में भारत की छवि को नुकसान हो सकता है। साथ ही, चीन और नेपाल जैसे पड़ोसी देश भी भारत की नदियों को लेकर बहाना बना सकते हैं।

छह-छह बड़ी नदियों का बहाव रोकने के लिए बहुत बड़े-बड़े बांध चाहिए। नदियों का वेग और प्राकृतिक बहाव इतना तेज होता है कि अचानक रोकना या मोड़ना आसान नहीं है। उदाहरण के तौर पर, हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी का बहाव जब बाढ़ के समय होता है तो कोई भी उसे रोक नहीं पाता। अगर पानी रोकना इतना आसान होता, तो हर साल आने वाली बाढ़ों को भी रोका जा सकता था।

टीवी चैनलों पर ऐसे थंबनेल दिखाई दे रहे हैं जैसे “भारत ने पाकिस्तान का पानी रोका”, “पाकिस्तान में हाहाकार”, “भारत का जल प्रहार”। इन सुर्खियों से आम लोगों में जोश तो आता है, लेकिन असली सवालों से ध्यान हट जाता है। जैसे हाल ही में पहलगाम में हुई 26 लोगों की हत्या में सुरक्षा में चूक कैसे हुई ? किसकी जिम्मेदारी थी ? इन सवालों पर बात करने के बजाय ध्यान नारा और भावनात्मक मुद्दों पर डाल दिया जाता है।

वर्ष 2016 में उरी हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि “रक्त और पानी एक साथ नहीं बह सकते।” उस समय एक उच्च स्तरीय टास्क फोर्स भी बनाई गई थी, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और अन्य बड़े अधिकारी थे। लेकिन अब आठ साल बाद भी कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। आज भी जलशक्ति मंत्री यही कह रहे हैं कि हम दीर्घकालिक योजनाओं पर काम कर रहे हैं। यानी अभी भी सिर्फ योजना बन रही है, पानी रोकने जैसा कुछ ठोस जमीन पर नहीं हुआ है।

सवाल पानी रोकने का नहीं है। सवाल है कि सरकार ने पिछले 8 साल में क्या ठोस काम किया? अगर वाकई पानी रोकने का इतना इरादा था, तो अब तक कोई ठोस बांध बन जाना चाहिए था। सिर्फ नारे लगाकर जनता को बहकाने से हकीकत नहीं बदलती।

2019 में राज्यसभा में जलशक्ति मंत्री ने बताया कि कुछ मौकों पर पाकिस्तान को ज्यादा पानी छोड़ना पड़ा क्योंकि भारत में अधिक बारिश और बर्फबारी से बांधों में पानी अधिक हो गया था। अगर पानी रोका जाता, तो भारत के अपने इलाकों में बाढ़ आ सकती थी और बड़े बांधों को खतरा हो सकता था।

जब मानसून के समय नदियों में पानी बढ़ जाता है, तो उसे रोकना संभव नहीं होता। अगर जबरदस्ती पानी रोका जाए, तो भाखड़ा डैम, पोंग डैम और रणजीत सागर डैम जैसे बड़े बांध टूट सकते हैं, जिससे पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में तबाही मच सकती है। तो सवाल उठता है कि पाकिस्तान को पानी रोकने के लिए क्या भारत अपने ही इलाकों को डुबो देगा?

2019 में सरकार ने यह भी साफ किया था कि बांधों की ऊंचाई बढ़ाए बिना पानी स्टोर करने की क्षमता नहीं बढ़ाई जा सकती। यानी नए जलाशय बनाने होंगे। एक अनुमान के मुताबिक अगर सिंधु, चिनाब और झेलम नदियों का पानी रोकना है, तो टिहरी डैम जैसे करीब 30 बड़े-बड़े बांध बनाने पड़ेंगे। और एक टिहरी डैम बनने में ही लगभग 10 साल लगते हैं। तो अगर आज से भी काम शुरू करें, तो 30 जलाशय बनाने में कई दशक लग जाएंगे। इतने जलाशय बनाने के लिए जगह, पैसा और समय – तीनों चीजों की भारी कमी है।

एक और चिंता का विषय है कि अगर इन नदियों का पानी भारत में रोकने की कोशिश की जाए तो पूरी कश्मीर घाटी डूब सकती है। यानी पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाने की कोशिश में भारत को खुद बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।

अगर नदियों का बहाव मोड़ने की कोशिश की जाए तो इसके लिए सैकड़ों किलोमीटर लंबी नहरें बनानी पड़ेंगी, जो व्यवहारिक रूप से लगभग असंभव है। इसमें भी कई दशक लग सकते हैं। सच यह है कि पाकिस्तान की ओर बहने वाला पानी भारत के हिस्से के पानी से लगभग चार गुना ज्यादा है। सिंधु जल संधि के तहत भारत को जिन नदियों का पानी मिला है, वह 33 मिलियन एकड़ फुट सालाना है, जबकि पाकिस्तान के हिस्से में 135 मिलियन एकड़ फुट पानी है। इसलिए सिंधु जल संधि को लेकर भावनाओं में बहना आसान है, लेकिन हकीकत में पानी रोकना न तकनीकी तौर पर संभव है और न ही तुरंत किया जा सकता है।

सच्चाई यह है कि 1948 में खुद नेहरू ने पाकिस्तान की नहरों का पानी रोक दिया था, जिससे उनकी नहरें सूख गई थीं। इसलिए यह कहना कि भारत हमेशा पाकिस्तान को पानी देता रहा, पूरी तरह सही नहीं है।

2019 में संसद में पूछा गया था कि क्या पंजाब से ज्यादा पानी पाकिस्तान जा रहा है? सरकार ने जवाब दिया था कि 2018 में भारी बारिश और बर्फबारी के कारण डैम भर गए थे। अगर पानी नहीं छोड़ा जाता, तो भारत के कई हिस्सों में भीषण बाढ़ आ सकती थी। इसलिए मजबूरी में पाकिस्तान की ओर पानी छोड़ा गया। यानी, मानसून के समय डैम ओवरफ्लो रोकने के लिए पानी छोड़ना जरूरी हो जाता है, वरना भारत खुद डूब सकता है। यह पानी रोकने की तकनीकी और भौगोलिक समस्या है, कोई राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी नहीं।

5 अगस्त 2021 को संसद की जल संसाधन समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत सिंधु जल समझौते के अनुसार अच्छा खासा पानी इस्तेमाल कर रहा है। अधिकारी मानते हैं कि भारत को जो पानी मिलना चाहिए, वह मिल रहा है और भौगोलिक कारणों से इससे ज्यादा इस्तेमाल भी संभव नहीं है।

जनवरी 2023 में भारत ने पाकिस्तान को नोटिस भेजा कि सिंधु जल समझौते की समीक्षा की जाए। भारत का कहना है कि पिछले 60 सालों में हालात काफी बदल गए हैं। आबादी बढ़ गई है, ऊर्जा की जरूरतें बदल गई हैं और सीमा पार से आतंकवाद की समस्या भी है। जब पुलवामा हमला हुआ था और हमारे 26 जवान शहीद हो गए थे, तब भी देश के बड़े नेता प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जनता को जवाब देने नहीं आए। सवाल यह उठता है कि सिर्फ पाकिस्तान का पानी रोकने की बातें करना आसान है, लेकिन देश की सुरक्षा में चूक होने पर जवाब देना ज्यादा जरूरी है।