मनपा के चुनाव न होना, स्थानीय नेतृत्व को खत्म करने की साजिश तो नहीं ?

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संपादकीय

चंद्रपुर महानगर पालिका अपने प्रशासन की वाहवाही, अपने प्रशासक राज की तारीफें अखबारों में पूरा का पूरा पेज विज्ञापन के रूप में छपवाकर किसी राजनेता की तरह अब अपनी छवि सुधारने लगी है। जबकि बीते अनेक वर्षों से मनपा के भितर चल रहे घोटाले, गड़बड़ियों से इसकी साख पर बट्‌टा लग चुका है।

पिछले पांच वर्षों से राज्य में महापालिका चुनाव नहीं हुए हैं। वहां का ‘प्रशासन’ प्रशासकों के माध्यम से चलाया जा रहा है। यह स्थानीय नेतृत्व को पूरी तरह से जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव माने जाने वाली स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के संचालन में जनता की कोई भी भागीदारी नहीं बची है। इससे यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि स्थानीय स्तर पर जनसहभाग वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था समाप्त हो गई है। संविधान में 72वें और 73वें संशोधनों के अनुसार, हमने स्थानीय प्रशासन को जनता की भागीदारी से चलाने का निर्णय लिया था, लेकिन महाराष्ट्र में अब यह लोकतंत्र लगभग समाप्त हो चुका है।

राज्य में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में 27 % ओबीसी आरक्षण का मुद्दा न्यायालय में विचाराधीन होने के कारण, मुंबई सहित राज्य की 27 महानगरपालिकाओं, 257 नगरपालिकाओं, 26 जिला परिषदों और 289 पंचायत समितियों में प्रशासनिक कार्य जारी है। इसके कारण राज्य की सभी जिला परिषदों और महानगरपालिका क्षेत्रों में स्थानीय नेतृत्व को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है, जिससे राज्य के सामान्य कार्यकर्ता हताश हो गए हैं। राज्य में शासन और प्रशासन का अनुभव प्राप्त कर नेतृत्व विकसित करने के लिए स्थानीय स्वशासन संस्थाएं अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वर्षों से इन चुनावों के न होने के कारण राजनीतिक दलों और सामाजिक क्षेत्र के कार्यकर्ता निराश हो चुके हैं। इन कार्यकर्ताओं का अब कोई सहारा नहीं बचा है।

लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कार्यकर्ताओं ने पूरी मेहनत से काम किया, लेकिन आगामी महापालिका और जिला परिषद चुनावों को लेकर उन्होंने जो भी योजना बनाई थी, वह अब अधर में लटकती दिख रही है।

राज्य में चंद्रपुर के अलावा मुंबई, ठाणे, नवी मुंबई, पनवेल, कल्याण-डोंबिवली, उल्हासनगर, भिवंडी-निजामपुर, वसई-विरार, मीरा-भाइंदर, पुणे, पिंपरी-चिंचवड़, सोलापुर, कोल्हापुर, नाशिक, मालेगांव, अकोला, अमरावती, नागपुर, संभाजीनगर, नांदेड़, लातूर, परभणी जैसी प्रमुख महानगरपालिकाओं और सभी जिला परिषदों के चुनाव पिछले तीन वर्षों से लंबित हैं। राज्य की कुल 29 महानगरपालिकाओं के चुनाव दो से चार वर्षों से टाले जा रहे हैं। इनमें हाल ही में गठित जालना और इचलकरंजी महानगरपालिकाओं के अब तक कोई भी चुनाव नहीं हुए हैं।

इसी दौरान, कोल्हापुर महानगरपालिका का कार्यकाल 15 नवंबर को समाप्त हुआ, छत्रपति संभाजीनगर महानगरपालिका का कार्यकाल 29 अप्रैल को खत्म हुआ, और नवी मुंबई महानगरपालिका का कार्यकाल 7 मई 2020 को पूरा हो गया था। यानी, कोरोना काल से भी पहले से इन चुनावों को लगभग पांच वर्षों से रोका गया है। राज्य की सबसे समृद्ध माने जाने वाली मुंबई महानगरपालिका का कार्यकाल समाप्त हुए भी अब दो साल से अधिक समय बीत चुका है। इस फरवरी के अंत तक 44 पंचायत समितियों का कार्यकाल समाप्त हो चुका है। इसी तरह, 1500 से अधिक ग्राम पंचायतों का प्रशासन भी वर्तमान में प्रशासकों द्वारा संचालित किया जा रहा है।

राज्य में विपक्षी दल स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के चुनाव जल्द से जल्द कराने की मांग कर रहे हैं। सत्तारूढ़ दल भी दावा कर रहा है कि वे किसी भी समय महानगरपालिका चुनावों का सामना करने के लिए तैयार हैं, लेकिन वे चुनाव आयोग की ओर इशारा कर रहे हैं। वहीं, चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर निर्भर है। कई दिनों तक यह मामला अदालत में सुनवाई के लिए नहीं आ रहा था। ऐसे में, यह सुनवाई 4 मार्च को रखी गई, लेकिन सरकार का पक्ष रखने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने शुरू में ही दो दिन का समय बढ़ाने का अनुरोध किया, जिसका याचिकाकर्ताओं ने विरोध किया। इससे असमंजस की स्थिति बन गई और मामला अगली सुनवाई के लिए टाल दिया गया, जिससे चुनाव और आगे खिसक गए। सभी व्यवस्थाएं सिर्फ दिखावे के लिए लोकतंत्र की अहमियत का प्रदर्शन कर रही हैं।

राज्य भर में इन स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के इच्छुक उम्मीदवारों का राजनीतिक भविष्य लगभग अधर में लटक गया है। इन कार्यकर्ताओं ने पिछले पांच वर्षों में चुनावों के लिए कई उपक्रम चलाए, जमीनी स्तर पर काम किया, और अपनी क्षमता के अनुसार या उससे अधिक धन खर्च किया। इसके चलते कई कार्यकर्ता अब आर्थिक संकट में फंस गए हैं। यह स्थिति मुख्य रूप से राजनीति में करियर बनाने वाले युवाओं और राजनीति के माध्यम से समाज में कुछ करने की क्षमता और इच्छा रखने वालों के लिए बेहद घातक साबित हो रही है।

वर्तमान सरकार चुनाव कराने के लिए सकारात्मक होने का दिखावा कर रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि उनका उद्देश्य स्थानीय जनप्रतिनिधियों का चुनाव ही न कराना है। इस तरह की कार्यप्रणाली के चलते पूरी स्थानीय स्वशासन प्रणाली को ही उखाड़ फेंकने की स्थिति बन गई है। लोकप्रिय योजनाओं के जरिए आम जनता को कर्ज के बोझ में धकेलना, जनता के पैसे की बेतहाशा बर्बादी करना, और मतों का ध्रुवीकरण कर जातीय, सामाजिक, धार्मिक माहौल बनाकर अपनी सीटें बढ़ाना, ऐसा ही भाजपा की केंद्र सरकार और वर्तमान राज्य सरकार की नीति प्रतीत हो रही है।

इसी दौरान, पिछले तीन वर्षों में राज्य सरकार ने प्रशासन के माध्यम से जो स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का संचालन किया है, उसकी स्थिति बेहद गंभीर है। जनता द्वारा, जनता के लिए चलाई जाने वाली सरकार इस समय चंद नौकरशाहों के हाथों में सिमट गई है। लोकप्रतिनिधियों की प्रशासन पर पकड़ खत्म होने के कारण पूरे राज्य में अराजकता और मनमानी बढ़ गई है।

न केवल चंद्रपुर बल्कि पुणे, मुंबई जैसे अनेक महानगर पालिकाओं में करोड़ों के घोटाले चर्चा का विषय बने हुए हैं। पुणे महानगरपालिका में हुए सैकड़ों करोड़ के घोटाले का पर्दाफाश हुआ है। पुणे महानगरपालिका, महाप्रीत और टेलीकॉम कंपनियों की मिलीभगत से पुणे के नागरिकों को प्रशासन के कार्यकाल में भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। टेलीकॉम कंपनियों पर 1,800 करोड़ रुपये का जुर्माना और फाइबर केबल कार्यों के लिए 18,000 करोड़ रुपये का शुल्क वसूल किया जाना था, लेकिन इस संबंध में जानकारी छिपाकर पुणेकरों को करोड़ों रुपये का नुकसान कराया गया। यह खुलासा खुद पुणे महानगरपालिका द्वारा नियुक्त सलाहकारों के अध्ययन में हुआ है।

राज्यभर में इसी तरह की घटनाएं चल रही हैं। जब खुद प्रशासन ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो, तो उसके खिलाफ कार्रवाई कैसे होगी ? यह सवाल उठ खड़ा हुआ है। जनता अपने रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं में उलझी हुई है। इन घोटालों के कारण जनता को नुकसान हो रहा है, लेकिन या तो वे इसे समझ नहीं रहे, या फिर अब समझने की इच्छा ही खत्म हो गई है। अगर इस स्थिति को बदलना है, तो जनता को ही लगातार दबाव बनाना होगा, अन्यथा लोकतंत्र की बुनियाद पूरी तरह ढह जाएगी।