गंगा ! तेरा पानी अमृत, झर झर बहता जाए, युग युग से इस देश की धरती….

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संपादकीय:

सरकार ने नमामि गंगे परियोजना पर अब तक 39,000 करोड़ फूंक दिये। अब जाकर पता चल रहा है कि वर्तमान में गंगा मैया का पानी नहाने योग्य भी नहीं है। इस पर अनेक सवाल उठे तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सवालों को नकारते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि गंगा का पानी पूरी तरह से साफ है, आचमन योग्य भी है और स्नान योग्य भी। लेकिन लोग जानते हैं कि गंगा का पानी वास्तव में साफ नहीं है, फिर भी वे उसमें डुबकी लगा रहे हैं। यह केवल आस्था के कारण नहीं हो रहा, बल्कि उनके अपने शहरों में भी हालात वैसे ही हैं, जैसे कुंभ में होते हैं। ऐसा नहीं है कि वे अत्यंत स्वच्छ माहौल से आकर अचानक कुंभ में गंदगी और सीवेज देखकर हैरान हो रहे हैं।

पटना के गंगा फ्लाईओवर के नीचे बसी बस्तियों को देखिए, ऐसी झुग्गियां हर शहर में मिल जाएंगी, जहां लोग नाले के ऊपर ही घर बनाकर वर्षों से रह रहे हैं। अगर वहां रहने वाले लोग कुंभ में आएंगे, तो वे गंगा की गंदगी देखकर हैरान नहीं होंगे। वे पहले से ही सीवेज के पानी के ऊपर से आते-जाते हैं, उनके बच्चे भी गंदे पानी के संपर्क में रहते हैं। नाक पर गमछा बांधकर वे इस गंदगी के साथ जीने के आदी हो चुके हैं। न तो सरकार को परवाह है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के बाद भी ये लोग इस हाल में क्यों रह रहे हैं, और न ही इन लोगों को उस भाषा की समझ है, जिसमें हम ‘गंदगी’ और ‘नरक’ को परिभाषित करते हैं। उनके लिए अपनी बस्ती और गंगा के घाट में कोई विशेष अंतर नहीं है-बल्कि दोनों ही उनके जीवन की निरंतरता का हिस्सा हैं।

साफ पानी की उपलब्धता आज भी बहुतों के लिए एक सपना मात्र है। हममें से कई लोग यह नहीं जानते कि शहरों में बस्तियों में रहने वाले लोग कैसे नहाते हैं, कैसी परिस्थितियों में जीते हैं। जो व्यक्ति अपने मोहल्ले की अव्यवस्था का विरोध नहीं कर सका, वह कुंभ में स्नान की स्थिति सुधारने के लिए आंदोलन नहीं करेगा।

कुंभ में आए लाखों-करोड़ों लोग खुद गंगा की कितनी परवाह करते हैं? घाटों पर बहते श्रद्धा-सुमनों और तैरते कचरे को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। जो लोग गंगा को प्रदूषित करने में एक सेकंड नहीं लगाते, उन्हें इस बात से क्यों फर्क पड़ेगा कि पानी गंदा है और सरकार इसके लिए जवाबदेह है? जब वे खुद ही इसमें योगदान दे रहे हैं, तो सरकार से क्या शिकायत करेंगे?

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश था कि लोगों को बताया जाए कि गंगा का पानी स्नान योग्य है या नहीं, लेकिन यह जिम्मेदारी किसने निभाई? अगर संगम के किनारे एक बोर्ड लगाया जाता कि “इस पानी में स्नान न करें, यह शहरी नाले के पानी से दूषित है,” तो सरकार के इंतजाम और दावों की पोल खुल जाती।

अगर आपको बताया जाए कि गंगा में 1400 गुना अधिक सीवेज है, तो क्या आप स्नान करेंगे? सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के मुताबिक, पानी में टोटल और फीकल कोलीफॉर्म की अत्यधिक मात्रा से पता चलता है कि उसमें सीवेज यानी नाले का गंदा पानी मिला हुआ है। इस पानी के संपर्क में आने से डायरिया, टाइफाइड और हैजा जैसी बीमारियाँ फैल सकती हैं।

विशेषज्ञों के अनुसार, कोलीफॉर्म बैक्टीरिया मनुष्यों और अन्य गर्म खून वाले जीवों की आंतों में पाए जाते हैं। जब यह मल के साथ बाहर निकलकर पानी में मिल जाते हैं, तो संक्रमण की प्रक्रिया शुरू होती है। गंगा में स्नान करने वाले लोग इस दूषित पानी से बीमार पड़ सकते हैं, लेकिन समस्या यह है कि इसका असर तुरंत नहीं दिखता। त्वचा में खुजली, आँखों में जलन, कानों में संक्रमण जैसी समस्याएँ सात दिन तक बाद में सामने आती हैं।

प्रश्न यह उठता है कि अगर गंगा का पानी स्नान योग्य नहीं है, तो नमामि गंगे परियोजना का क्या हुआ? 10 साल में हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा की सफाई क्यों नहीं हो पाई? 16 फरवरी को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से सवाल किया कि क्या आपने 50 करोड़ लोगों को सीवेज के पानी में नहाने दिया?

उत्तर प्रदेश सरकार ने 18 फरवरी को यूपी पीसीबी की एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें दावा किया गया कि संगम का पानी नहाने के लिए उपयुक्त है। लेकिन यह रिपोर्ट केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की रिपोर्ट से मेल नहीं खाती। CPCB के आंकड़ों के अनुसार, 19 जनवरी को गंगा के पानी में टोटल कोलीफॉर्म की मात्रा 7 लाख और यमुना में 3.3 लाख पाई गई, जबकि मानक केवल 500 होना चाहिए।

एनजीटी ने यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को रिपोर्ट दोबारा जमा करने का निर्देश दिया क्योंकि यह अधूरी थी। अब इस पूरे विवाद में एक और नाम जुड़ गया-डॉ. अजय कुमार सोनकर। उन्होंने दावा किया कि गंगा का पानी “बिल्कुल स्वच्छ” है। उनके इस दावे को लेकर सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी।

पर सवाल उठता है कि डॉ. सोनकर कौन हैं? क्या वे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य हैं? क्या वे यूपी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकृत वैज्ञानिक हैं? यदि नहीं, तो उनकी रिपोर्ट को यूपी सरकार ने क्यों जारी किया? जब यूपीपीसीबी की अपनी रिपोर्ट अधूरी थी और उसे एनजीटी ने खारिज कर दिया, तो यह रिपोर्ट कितनी विश्वसनीय है?

सरकार की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि गंगा में “स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता” है। अगर यह सच है, तो फिर नमामि गंगे परियोजना की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? 2015 से शुरू हुए इस प्रोजेक्ट पर ₹39,000 करोड़ खर्च हो चुके हैं। मुख्यमंत्री ने खुद नवंबर में कहा था कि प्रधानमंत्री के प्रयासों से गंगा का पानी आचमन योग्य हुआ है। लेकिन अब सरकार कह रही है कि गंगा तो खुद ही स्वच्छ हो जाती है!

मीडिया को जनता के पैसे से करोड़ों रुपये के विज्ञापन मिलते हैं, लेकिन कितने मीडिया हाउस ने गंगा की असली स्थिति पर रिपोर्टिंग की? गोदी मीडिया ने कुंभ की भव्यता दिखाई, लेकिन क्या किसी ने 44 गंदे नालों की पड़ताल की, जो बिना ट्रीटमेंट के गंगा में गिर रहे थे? क्या किसी रिपोर्टर ने जाकर यह साबित किया कि कुंभ के दौरान गंगा वाकई साफ थी?

  • यूपी सरकार का दावा है कि 81 नाले बंद कर दिए गए हैं और हर दिन 261 मिलियन लीटर पानी ट्रीट किया जा रहा है। लेकिन 22 फरवरी को खबर आई कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रयागराज मेला प्रशासन और यूपी पीसीबी को नोटिस जारी कर दिया है। याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि शौचालयों की संख्या कम होने से लाखों लोग खुले में शौच कर रहे हैं और इससे नदी प्रदूषित हो रही है।
  • सरकार का दावा है कि यह कुंभ “प्लास्टिक फ्री” और “कचरा मुक्त” है, लेकिन जो लोग यहां आ रहे हैं, वे अब भी भारी मात्रा में प्लास्टिक और कचरा लेकर आ रहे हैं।

गंगा को पवित्र मानने वाले लोग ही उसे सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। सरकार हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी गंगा को स्वच्छ नहीं बना पाई। और अब गंगा की सफाई के बजाय झूठी रिपोर्टें पेश कर सफाई के दावे किए जा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या कोई सरकार गंगा की असली स्थिति को सुधारने की ज़िम्मेदारी लेगी, या फिर हर बार गंगा के नाम पर राजनीति ही होती रहेगी?