पालकमंत्री का पद क्यों चाहिये ?

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20 नवंबर को महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हुए। 23 नवंबर को मतगणना पूरी हुई। और 5 दिसंबर को भव्य समारोह में देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके साथ एकनाथ शिंदे और अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद कैबिनेट विस्तार में 15 दिन और लग गये। और 21 दिसंबर को मंत्रियों को शपथ दिलाई गई। शपथ के बाद भी यह तय करने में दो सप्ताह का समय लग गया कि कौन मंत्री कौन सा विभाग संभालेगा।

इसके बावजूद, मुख्यमंत्री फडणवीस और उपमुख्यमंत्री शिंदे को छोड़ दें तो सरकार ने अभी तक कोई ठोस काम शुरू नहीं किया है। सवाल उठता है कि तीन पार्टियों की गठबंधन सरकार और भारी बहुमत होने के बावजूद सरकार मजबूत होती क्यों नहीं दिख रही है?

इसका मुख्य कारण रहा है कि सरकार के कई मंत्रियों की नजर पालकमंत्री बनने पर थी। आज के समय में केवल मंत्री बनने से संतोष नहीं होता। “ज्यादा का लोभ” की तर्ज पर हर किसी को एक जिले का पालकमंत्री बनने में दिलचस्पी रहती है। कुछ नेता तो यह भी कहते हैं कि उन्हें बिना विभाग का मंत्री बना दिया जाए, लेकिन कम से कम एक जिले का पालकमंत्री जरूर बनाया जाए।

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अभी हाल ही में पालकमंत्री पदों का वितरण किया है। हालांकि, उन्होंने गढ़चिरोली जिले का पालकमंत्री पद खुद के पास रखने की घोषणा पूर्व में ही की थी। गढ़चिरोली जिला खनिज और वन संपदा से भरा हुआ है। कई नेताओं के हित इस जिले की खदानों में जुड़े हुए हैं। ऐसे में कई वरिष्ठ नेताओं की नजर इस जिले के पालकमंत्री पद पर थी।

मुख्यमंत्री ने गढ़चिरोली जिले का पालकमंत्री पद खुद के पास रखकर अच्छा किया, लेकिन वे यहां रुकें नहीं। उन्हें पालकमंत्री पद की व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए।

महाराष्ट्र के सभी जिले इतने लंबे समय तक बिना पालकमंत्री के चल सकते हैं, तो फिर इस पद की जरूरत ही क्यों है ? पालकमंत्री न होने से किसी जिले का विकास रुकता हुआ नहीं दिखा। बल्कि, पालकमंत्री की गैरमौजूदगी में जिला प्रशासन ने बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के काम करना जारी रखा।

यह स्पष्ट है कि पालकमंत्री पद राज्य की जरूरत नहीं है। अगर यह पद खत्म हो जाए तो इससे प्रशासन और विकास कार्यों में आसानी होगी। सच तो यह है कि पालकमंत्री पद आम जनता के लिए नहीं, बल्कि केवल सत्ता में बैठे कुछ राजनेताओं की जरूरत है।

पालकमंत्री पद का कोई संवैधानिक आधार नहीं है। यह पद 1972 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक ने “जिला प्रभारी मंत्री” के रूप में शुरू किया था। वसंतराव नाइक ने यह निर्णय राजनीतिक मजबूरियों के तहत लिया था। हालांकि, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि जिले के प्रभारी मंत्री उसी जिले के बाहर के नेता हों। इसका उद्देश्य यह था कि प्रभारी मंत्री जिले के स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप न करें और विकास कार्यों में निष्पक्षता बनी रहे।

लेकिन धीरे-धीरे इस व्यवस्था का दुरुपयोग होने लगा। अब तो अक्सर उसी जिले के नेता को पालकमंत्री बनाया जाता है। यह प्रथा स्थानीय राजनीति और विकास योजनाओं पर नकारात्मक असर डालती है। पालकमंत्री बनने वाले नेता अक्सर अपने क्षेत्र में विकास निधि को मनमाने ढंग से खर्च करते हैं, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है।

पालकमंत्री जिला योजना समितियों के पदेन अध्यक्ष होते हैं। लेकिन कई जिलों में योजना समितियां सक्रिय नहीं होतीं। ऐसे में पूरा नियंत्रण पालकमंत्री के हाथों में आ जाता है। जिले के विकास के लिए आवंटित धन का इस्तेमाल जिले के हित के बजाय नेताओं और ठेकेदारों के व्यक्तिगत हितों में किया जाता है।

बीड जिले में हुए भ्रष्टाचार का एक उदाहरण इस समस्या को उजागर करता है। जिले के विकास के नाम पर धन का बंटवारा किया गया, लेकिन असल में यह केवल अपने करीबियों को फायदा पहुंचाने तक सीमित था।

पालकमंत्री पद को लेकर अक्सर नेताओं में रस्साकशी देखी जाती है। रायगढ़ जिले के पालकमंत्री पद को लेकर भरत गोगावले और सुनील तटकरे के बीच विवाद हुआ। पुणे जिले के पालकमंत्री पद के लिए चंद्रकांत पाटील और अजित पवार के बीच प्रतिस्पर्धा हुई। नंदुरबार जैसे पिछड़े जिले के लिए भी विजयकुमार गावित और माणिकराव गावित में टकराव हुआ।

इन सभी घटनाओं से यह साफ है कि पालकमंत्री पद आम जनता के हित में नहीं, बल्कि नेताओं की महत्वाकांक्षा और राजनीतिक शक्ति के लिए है।

दक्षिण भारत के राज्यों में यह व्यवस्था नहीं है और वहां का विकास पूरे देश में एक मिसाल है। दूसरी ओर, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यह व्यवस्था है और वहां विकास की स्थिति सबके सामने है।

महाराष्ट्र को दक्षिण भारतीय राज्यों की तर्ज पर विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को साहस दिखाना होगा। उन्हें पालकमंत्री पद को पूरी तरह समाप्त कर देना चाहिए।

अगर ऐसा संभव नहीं हो, तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाए कि जिले का पालकमंत्री उसी जिले के बाहर का व्यक्ति हो। अगर मुख्यमंत्री फडणवीस पालकमंत्री व्यवस्था को खत्म कर दें, तो यह महाराष्ट्र के विकास में एक बड़ी छलांग होगी और राज्य के नागरिक उन्हें दुआ देंगे।

उद्देश्य चाहे जिले के विकास का हो, लेकिन असल में यह सिर्फ अपने करीबियों, ठेकेदारों को काम देने और सरकारी धन का दुरुपयोग करने तक सीमित रह जाता है।

उद्देश्य चाहे जिले के विकास का हो, लेकिन असल में यह सिर्फ अपने करीबियों, ठेकेदारों को काम देने और सरकारी धन का दुरुपयोग करने तक सीमित रह जाता है।

परंतु हाल ही में जारी पालकमंत्री पदों की सूची पर गौर किया जाएं तो एक स्पष्ट राजनीतिक नफा-नुकसान का आलेख नजर आता है। राजनीतिक दलों में खैरात बंटने जैसी स्थितियां दिखाई पड़ती है।

चंद्रपुर जिले की यदि बात की जाएं तो विधायक अशोक उईके को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के करीबी और विश्वासपात्र नेता के तौर पर पहचाना जाता है। रालेगांव विधानसभा क्षेत्र से उईके लगातार तीसरी बार जीत हासिल कर चुके हैं। उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व शिक्षामंत्री वसंत पुरके को तीन बार पराजित कर यह उपलब्धि हासिल की है। जबकि चंद्रपुर जिले में 7 बार विधायक बने भाजपा के दिग्गज नेता सुधीर मुनगंटीवार को इस बार न तो मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया और न ही पालकमंत्री बनने का मौका मिला। इसके चलते चंद्रपुर जिले की जनता में नाराजगी है। खासकर भाजपा के कार्यकर्ताओं में निराशा छायी हुई है।

1995 में मनोहर जोशी सरकार के दौरान जिले की वरिष्ठ बीजेपी नेत्री शोभा फडणवीस को कैबिनेट मंत्री बनाया गया और उन्हें जिले के अभिभावक मंत्री पद की जिम्मेदारी भी दी गई थी। इसके बाद, 1999 से 2008 तक पूरे 9 साल जिले को मंत्री पद से वंचित रखा गया। अब इस जिले के पालकमंत्री पद की जिम्मेदारी बाहरी व्यक्ति को सौंपी गई है। 2010 में जिले के संजय देवतले, 2014 में सुधीर मुनगंटीवार, 2019 में विजय वडेट्टीवार और 2022 में सुधीर मुनगंटीवार पालक मंत्री बने थे।