भारत में कृषि नीति और गारंटी भाव प्रणाली (MSP) लंबे समय से चर्चा और विवाद का विषय रही है। फिलहाल की स्थिति में, हमी भाव सिर्फ गेहूं और चावल जैसी सिंचित फसलों तक सीमित है। इससे पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों के किसानों को लाभ हो रहा है, जबकि कोरडवाहू (ड्राई लैंड फ़ार्मिंग) क्षेत्रों के किसानों को कोई सुरक्षा नहीं मिल रही। यह नीति असंतुलन और अन्यायपूर्ण मानी जा रही है।
भारत के 80% से अधिक किसान छोटे किसान हैं। ये किसान वैश्विक बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव को झेलने की क्षमता नहीं रखते। कृषि उत्पादों के मूल्य अक्सर अस्थिर रहते हैं और वैश्वीकरण के चलते इनकी अस्थिरता और बढ़ जाती है। इस स्थिति में, किसानों को उनकी फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य का भरोसा देना जरूरी है। लेकिन यह भी सत्य है कि वर्तमान हमी भाव नीति केवल कागजों पर सीमित है।
हमी भाव से खरीद मुख्यतः कुछ गिने-चुने राज्यों और गेहूं-चावल तक सीमित है। इससे अन्य फसलों की उपेक्षा हो रही है। कोरडवाहू फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, रागी (नाचणी) आदि के उत्पादक किसानों को इस नीति का कोई लाभ नहीं मिलता। केंद्र सरकार कभी-कभी दालों की खरीद करती है, लेकिन यह असंगत और अनियमित होती है।
कोरडवाहू फसलों की मांग में कमी का एक बड़ा कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) है। इसमें गेहूं और चावल जैसे अनाजों का ही वितरण होता है। इससे ज्वार, बाजरा और अन्य मोटे अनाजों की मांग घट जाती है और इनके दाम गिर जाते हैं। हालांकि, ओडिशा ने एक सकारात्मक कदम उठाते हुए अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में रागी (नागली) को शामिल किया है। यह एक सराहनीय अपवाद है, जिसे अन्य राज्यों को भी अपनाना चाहिए।
सरकार को मौजूदा केंद्रीकृत सार्वजनिक वितरण प्रणाली को विकेंद्रीकृत करने पर विचार करना चाहिए। हर राज्य को अपनी जरूरत के अनुसार स्थानीय किसानों से अनाज खरीदना चाहिए। इससे कोरडवाहू क्षेत्रों के किसानों को लाभ मिलेगा और क्षेत्रीय असंतुलन भी कम होगा।
हमी भाव की जगह भावांतर योजना लागू करना एक व्यावहारिक उपाय हो सकता है। इस योजना के तहत, यदि किसान को अपनी फसल हमी भाव से कम कीमत पर बेचनी पड़े, तो सरकार बाजार मूल्य और हमी भाव के अंतर की भरपाई करेगी। मध्य प्रदेश ने इस योजना को लागू किया है, और अब इसे हरियाणा में भी अपनाया जा रहा है।
दालें, तेलहन, और कापूस जैसी फसलें भी हमी भाव के तहत आती हैं, लेकिन इनकी खरीद में नियमितता की कमी है। इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में दालों और अन्य फसलों को शामिल करना जरूरी है। तेलहन और नाशवंत फसलों (जैसे आलू, प्याज, टमाटर) के लिए भी भावांतर योजना लागू की जा सकती है।
किसानों की संस्थाओं को अनाज की खरीद, भंडारण और वितरण का जिम्मा सौंपा जाए। इससे कार्यक्षमता बढ़ेगी। हमी भाव का लाभ सिर्फ गेहूं और चावल तक सीमित न रखते हुए इसे सभी फसलों पर लागू किया जाए। देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली और हमी भाव नीति में व्यापक सुधार की जरूरत है। विकेंद्रीकृत वितरण प्रणाली और भावांतर योजना जैसे उपाय न केवल छोटे और कोरडवाहू किसानों को राहत देंगे, बल्कि कृषि क्षेत्र में संतुलन भी स्थापित करेंगे। यह कदम भारतीय कृषि को अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण बना सकता है।
पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने केंद्रीय कृषि मंत्री की उपस्थिति में पीएम किसान सम्मान निधि में बदलाव के साथ किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए उनसे वार्ता की भी जरूरत जताई।
कृषि पर संसदीय मामलों की कमेटी ने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की कानूनी गारंटी की सिफारिश की है। संसद के पटल पर रखी गई इस रपट में पीएम किसान सम्मान राशि को भी 6,000 से 12,000 रुपये करने की भी संस्तुति है।
इसी बीच अपनी मांगों को लेकर आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण सरकारों की चिंता बढ़ रही है। 2020 में मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानून लाने और फिर इन्हें खत्म करने के बाद भी किसान आंदोलन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।
कृषि उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) कानून के अनुसार किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते थे। कोई भी लाइसेंस धारक व्यापारी किसानों से सहमत कीमतों पर उपज खरीद सकता था। कृषि उत्पादकों का यह व्यापार राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए मंडी कर से मुक्त किया गया था।
किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा कानून किसानों से अनुबंध खेती करने और अपनी उपज का स्वतंत्र रूप से विपणन करने की अनुमति देने के लिए था। इसके तहत फसल खराब होने पर नुकसान की भरपाई किसानों को नहीं, बल्कि एग्रीमेंट करने वाले पक्ष या कंपनियों द्वारा की जाती।
आवश्यक वस्तु संशोधन कानून के तहत असाधारण स्थितियों को छोड़कर व्यापार के लिए खाद्यान्न, दाल, खाद्य तेल और प्याज जैसी वस्तुओं से स्टाक सीमा हटा ली गई थी।
कृषि कानूनों से किसानों में यह बात घर कर गई कि इनके जरिये सरकार एमएसपी को खत्म कर देगी और उन्हें उद्योगपतियों का मोहताज बनाकर छोड़ देगी, जबकि सरकार का तर्क था कि इन कानूनों के जरिये कृषि क्षेत्र में नए निवेश के अवसर पैदा होंगे और किसानों की आमदनी बढ़ेगी।
कृषि संकट एक वैश्विक घटना है। कई देशों में छोटे किसानों को संसाधनों तक पहुंच की कमी, कम पैदावार, अस्थिर बाजार जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भारत में इस कृषि संकट के चलते किसानों की आत्महत्या की घटनाएं 1970 से ही प्रारंभ हो गई थीं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1995 से 2014 के बीच 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की। 2014 से 2022 के बीच नौ वर्षों में यह संख्या 10,047 थी। नाबार्ड के अनुसार मौजूदा समय देश के सभी तरह के बैंकों का करीब 16 करोड़ किसानों पर 21 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। यानी प्रति किसान कर्ज 1.35 लाख रुपये है।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के अनुसार किसानों को जरूरी दर से कम एमएसपी देने से किसानों को लगभग 60 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इसके चलते किसान कर्ज में डूब गए हैं।
यह किसानों की आत्महत्या का एक बड़ा कारण है। इसी असंतोष के चलते 2020 में किसानों ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के साथ किसानों की मांगों पर सहमति बनाने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही।
कई दौर की मीटिंग के बाद भी आज तक उस कमेटी की रिपोर्ट का अता-पता नहीं है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पांच सदस्यीय कमेटी के कुछ निष्कर्ष अवश्य प्रकाश में आए हैं, जिसके अनुसार किसानों की लागत और कृषि हेतु लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ रहा है।
समिति ने उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाने के लिए एमएसपी को कानूनी मान्यता सहित 11 मुद्दे चिह्नित किए हैं। हाल में कृषि उत्पादकता में गिरावट, बढ़ती कृषि लागत, अपर्याप्त मार्केटिंग सिस्टम और सिकुड़ते कृषि रोजगार से कृषि आय में गिरावट आई है।
घटता जलस्तर, बार-बार सूखा पड़ना, कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा का पैटर्न, भीषण गर्मी आदि जलवायु आपदाएं भी कृषि एवं खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रही हैं। किसान अपनी आजीविका को बनाए रखने से संबंधित चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
इसी आर्थिक असुरक्षा के चलते पंजाब के किसान संगठनों ने स्वामीनाथन फार्मूले के अनुसार सभी फसलों पर एमएसपी के कानूनी अधिकार की मांग की है। उनका कहना है कि उन्हें बाजार की ताकतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
एमएसपी को महत्वपूर्ण कृषि उत्पादों के लिए मूल्य स्थिरता बनाए रखने के लिए डिजाइन किया गया है। इसका उद्देश्य सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से किसानों को मूल्य में उतार-चढ़ाव से बचाना है। यह प्रणाली पांच दशकों से अधिक समय से चल रही है।
सरकार की धारणा है कि एमएसपी को कानूनी गारंटी देने से उसे सभी कृषि उपज खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, लेकिन इस संदर्भ में दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहला, सभी कृषि उपज बाजार में नहीं आतीं। किसान कुछ उपज को स्वयं के उपभोग, बीज और पशु चारे के लिए बचाकर रखते हैं।
दूसरा, सरकारी हस्तक्षेप केवल तभी तक आवश्यक होता है, जब किसी वस्तु का बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे जाता है। इसीलिए एमएसपी पर कानूनी गारंटी लागू करने पर विचार होना चाहिए।
एमएसपी की गारंटी न केवल किसानों की आत्महत्या को रोकने और महंगाई घटाने में सहायक होगी, बल्कि जल संरक्षण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा और राष्ट्रीय संपत्ति को संरक्षित करने में भी मददगार होगी।